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* चौवीस तीथकर पुराण *
से नहीं होगा। भला, जिस जंजाल से आप बचना चाहते हैं उसी जंजाल में आप मुझे क्योंकर फंसाना चाहते हैं ? ओह ! मेरी आयु सिर्फ बहत्तर वर्ष की है जिसमें आज तीस वर्ष व्यतीत हो चके । अब इतने से अवशिष्ट जीवन में मुझे बहुत कुछ कार्य करना वाकी है । देखिये पिताजी ! ये लोग धर्मके नाम पर आपस में किस तरह झगड़ते हैं। सभी एक दूसरे को अपनी ओर खींचना चाहते हैं । पर खोज करने पर ये सब हैं पोचे । धर्माचार्य प्रपञ्च फैलाकर धर्म की दूकान सजाते हैं जिनमें भोले प्राणी ठगाये जाते हैं । मैं इन पथ भ्रान्त पुरुषों को सुख का सच्चा रास्ता बतलाऊंगा । क्या बुरा है मेरा विचार?'...... सिद्धार्थ ने बीच में ही टोक कर कहा - पर ये तो घर में रहते हुए भी हो स कते हैं, कुछ आगे बढ़कर महावीर ने उत्तर दिया 'नहीं महराज ! यह आप का सिर्फ व्यर्थ मोह है, थोड़ी देरके लिये आप यह भूल जाइये कि महावीर मेरा बेटा है फिर देखिये आपकी यह विचार धारा परिवर्तित हो जाती है या नहीं ? घस, पिताजी ! मुझे आज्ञा दीजिये जिससे मैं जङ्गल के प्रशान्त वायु मण्डल में रहकर आत्म ज्योति को प्राप्त करूं और जगत् का कल्याण करूं । कुछ प्रारम्भ किया और कुछ हुआ' सोचते हुए सिद्धार्थ महाराज विषण्ण वदन हो चुप रह गये।
जब पिता पुत्रका ऊपर लिखा हुआ सम्बाद त्रिशला रानीके कानों में पड़ा | तब वह पुत्र मोहसे व्याकुल हो उठी-उसके पांवके नोचेकी जमीन खिसकने सी लगी। आंखोंके सामने अँधेरा छा गया। वह मूञ्छित हुआ ही
चाहती थी कि बुद्धिमान् वर्द्धमान कुमारने चतुराई भरे शब्दोंमें उनके सामने | अपना समस्त कर्तव्य प्रकट कर दिया-अपने आदर्श और पवित्र विचार . उसके सामने रख दिये । एवं संसारकी दूषित परिस्थितिसे उसे परिचित करा दिया। तब उसने डबडपाती हुई आंखोंसे भगवान् महावीरकी ओर देखा। उस समय उसे उनके चेहरेपर परोपकारकी दिव्य झलक दिखाई दी। उनकी लालमा शून्य सरल मुखाकृतिने उनके समस्त व्यामोहको दूर कर दिया। महावीरको देखकर उसने अपने आपको बहुत कुछ धन्यवाद दिया और कुछ देरतक अनिमेष दृष्टिसे उनकी ओर देखती रही। फिर कुछ देर