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* चौबीम तीर्थकर पुराण *
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और कई तरहके वाजोंके शब्दोंसे नभको गुजा दिया। इधर राज परिवार और पुरवासी विवाहोत्सवको तैयारी में लग रहे थे, उधर भगवान् मल्लिनाथ राजभवनके विजन स्थानमें बैठे हुये सोच रहे थे कि-विवाह, यह एक मीठा वन्धन है । मनुष्य इस वन्धनमें फंसकर आत्म स्वातन्त्र्यसे सर्वथा बंचित हो जाते हैं । विवाह, यह एक प्रचण्ड पवन है, जिसके प्रवल झकोरोंसे प्रशान्त हुई विषयवह्नि पुनः उदीप्त हो उठनी है। विवाह, यह एक मलिन कर्दम-कीचड़ है जो कि आत्म क्षेत्रको सर्वथा मलिन बना देती है। विवाहको सभी कोई बुरी दृष्टिसे देखते आये हैं और है भी यह बुरी चीज । तब मैं क्यों व्यर्थ ही इस जंजालमें अपने आपको फंसा हूँ। मेरा सुदृढ़ निश्चय है कि मेरे जो उच्च विचार और उन्नत भावनाए हैं, विवाह उन सब पर एकदम पानी फेर देगा। मेरे उन्नतिके मार्गमें यह विवाह एक अचल-पर्वतकी तरह आड़ा हो जावेगा। इसलिये मैं आज निश्चय करता हूँ कि अब मैं इन भौतिक भोंगों पर लात मार कर शीघ्र ही आत्मीय आनन्दकी प्रासिके लिये प्रयत्न करूंगा।".."उसी समय लौकान्तिक देवोंने उनके उच्च आदर्श विचारोंका समर्थन किया जिससे उनका वैराग्य अधिक प्रकर्षताको प्राप्त हो गया। अपना कार्य समाप्तकर लोकान्तिक देव अपने अपने स्थानों पर चले गये और सौधर्म आदि इन्द्रोंने आकर दीक्षा कल्याणकका उत्सव करना आरम्भ कर दिया। भगवान मल्लिनाथके इस आकस्मिक विचार परिवर्तनसे सारी मिथिलामें क्षोभ मच गया। उभय पक्षके माता पिताके हृदय पर भारी ठेस पहुंची। पर उपाय ही क्या था। विवाहकी समस्त तैयारियां एकदम बन्द कर दी गई। उस समय नगरीमें शृङ्गार और शान्त रसका अद्भुत समर हो रहा था। अन्तमें शान्तरसने शृङ्गारको धराशायी बनाकर सब ओर अपना आधिपत्य जमा लिया था। देवाने भगवान् मल्लिनाथका अभिषेक कर उन्हें अच्छे-अच्छे वस्त्राभूपण पहिनाये दीक्षाभिपेकके बाद वे देवनिर्मित जयंत नामकी पालकी पर सवार होकर श्वेत घनमें पहुंचे और यहां दो दिनके उपवासकी प्रतिज्ञा लेकर मार्गशीर्ष सुदी एकादशीके दिन अश्विनी नक्षत्रमें शामके समय तीन सौ राजाओंके साथ नग्न दिगम्बर हो गये-सव वस्त्राभूपण उत्तार कर फेंक दिये तथा पंचमुष्टि.
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