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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण
इक्ष्वाकु वंशीय सिंहसेन राजा राज्य करते थे । उनकी महारानीका नामजयश्यामा था । उस समय रानी जयश्यामाके समान रूपवती, शीलवती, और सौभाज्ञवती स्त्री दूसरी नहीं थी । जब ऊपर कहे हुए देवकी वहांकी स्थिति छह माहकी बाकी रह गई तबसे राजा सिंहसेनके घरपर कुबेरने रत्नोंकी वर्षा करना शुरू कर दी और वापी, कूप तालाब परिखा प्राकार आदिसे शोभायमान नई अयोध्याकी रचनाकर उसमें राजा तथा समस्त नागरिकोंको ठहराया । कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रिके पिछले पहर में महादेवी जयश्यामाने गजेन्द्र आदि सोलह स्वप्न देखे और अन्तमें मुहमें घुसते हुए किसी सुन्दर हाथीको देखा। उसी समय उक्त देवने स्वर्गीय वसुधासे मोह तोड़कर उसके गर्भ में प्रवेश किया । सवेरा होते ही उसने पतिदेव महाराज सिंहसेनसे स्वप्नोंका फल पूछा । वे अवधिज्ञान से जानकर कहने लगे कि आज तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर बालकने अवतार लिया है ये सब इसीके अभ्युदयके सूचक हैं। इधर महाराज रानीके सामने तीर्थङ्करके माहात्म्य और उनके पुण्यके अतिशयका वर्णनकर रहे थे उधर देवोंके जय जय शब्दसे आकाश गूंज उठा । देवोंने आकर राज भवनकी प्रदक्षिणाएं की स्वर्गसे लाये हुए वस्त्र आभू षणोंसे राज दम्पतीका सत्कार किया तथा और भी अनेक उत्सव मनाकर अपने स्थानोंकी ओर प्रस्थान किया । यह सब देखकर रानी जयश्यामाके आनन्दका पार नहीं रहा ।
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धीरे धीरे गर्भके नौ मास पूर्ण होने पर उसने ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशीके दिन बालक - भगवान् अनन्तनाथको उत्पन्न किया। उसी समय देवोंने आकर बालकका मेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक किया और फिर अयोध्या में वापिस आकर अनेक उत्सव किये । इन्द्रने आनन्द नामका नाटक किया और अप्सराओंने मनोहर नृत्य से प्रजाको अनुरन्जित किया। सबकी सलाहसे बालकका नाम अनन्तनाथ रक्खा गया था जो कि बिलकुल ठीक मालूम होता था क्योंकि उनके गुणोंका अन्त नहीं था- पार नहीं था । जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में अयोध्यापुरी इतनी सजाई गई थी कि वह अपनी शोभाके सामने स्वर्ग पुरीको भी नीचा समझती थी । महाराज सिंहसेनने हृदय खोलकर याच कोंको मनवां
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