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* चौवीस तीर्थकर पुराण
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वहां उसके मारनेके लिये उपयुक्त स्थानकी तलाश करने लगा । अन्तमें उसने बहुत जगह तलाश करनेके बाद युवराजको मगरमच्छ आदिसे भरे हुए एक मनोरम नामके तालाबमें आकाशसे पटक दिया और आप निश्चिन्त हो कर अपने घर चला गया। युवराजको उसने बहुत ऊंचेसे पटका अवश्य था पर पुण्यके उदयसे उसे कोई चोट नहीं लगी । वह अपनी भुजाओंसे तैरकर शीघ्र ही तटपर आ गया । तालाबसे निकलते ही उसे चारों ओर भयानक जङ्गल दिखलाई पड़ा। उसमें वृक्ष इतने घने थे कि दिन में भी वहां सूर्यका प्रकाश नहीं फैल पाता था। जगह जगह पर सिंह, व्याघ्र, आदि दुष्ट जीव गरज रहे थे। इतना सब होनेपर भी अल्पवयस्क युवराजने धैर्य नहीं छोड़ा। वह एक संकीर्ण मार्गसे उस भयानक अटवीमें घुसा । कुछ दूर जानेपर उसे एक पर्वत मिला। अटवीका अन्त जानने के लिये ज्योंही वह पर्वतपर चढ़ा त्यों ही वहां वर्षातके मेधके समान काला एक पुरुष उसके सामने आया और क्रोधमे गरज कर कहने लगा-कि कौन है तू ? जो मरनेकी इच्छासे मेरे स्थानपर आया है। जहां सूर्य और चन्द्रमा भी पादचार किरणोंका फैलाव नहीं कर सकते वहां तेरा आगमन कैसा ? मैं दैत्य हूँ, इसी समय तुझे यमलोक पहुंचाये देता हूँ। उसके वचन सुनकर कुमारने हंसते हुए कहा कि आप बड़े योद्धा मालूम होते हैं । इस भीषण अटवीपर आपका क्या अधिकार है ? यहाँका राजा तो कोई मृगराज होना चाहिये पर कुमारके शान्तिमय वार्तालाप का उसपर कुछ भी असर नहीं पड़ा। वह पहलेकी तरह ही यद्वा तद्वा बोलता रहा । तव कुमारको भी क्रोध आ गया। दोनोंमें डटकर मल्लयुद्ध हुआ। धन देवियां झाड़ियोंसे छिपकर दोनोंकी युद्ध लीलाएं देख रही थीं। कुछ समय बाद कुमारने उसे भूपर पछाडनेके लिए उठाया और आकाशमें घुमाकर पछा. ड़ना ही चाहते थे कि उसने अपना मायावी वेष छोड़ दिया और असली रूप में प्रकट होकर कहने लगा-घस, कुमार ! मैं समझ गया कि आप बहुत ही बलवान पुरुष हैं । उस मांको धन्य है जिसने आप जैसा पुत्र उत्पन्न किया। मैं हिरण नामका देव हूँ, अकृतिम चैत्यालयोंकी चन्दनाके लिए गया था। वहां से लौटकर यहां आया था और कृतिम वेषसे यहां मैंने आपकी परीक्षा की।