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* चौवीस तीर्थङ्कर पुराण *
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जम्बूद्वीपसे दूनी है। उनमें पूर्व और पश्चिम दिशामें दो मंदर-मेरु पर्वत हैं। पूर्व दिशाके मेमसे पश्चिमकी ओर एक बड़ा भारी विदेह क्षेत्र है। उसमें सीता नदीके उत्तर तटपर एक सुगन्धि नामका देश है जो हरएक तरह से सम्पन्न है। उसमें श्रीपुर नामका नगर था, जिसमें किसी समय श्रीषेण नामका राजा राज्य करता था। वह राजा यहुन हो बलवान था, दयालु था, धर्मात्मा था, नीतिज्ञ था । वह हमेशा सोच-विचार कर कार्य करता जिससे उसे कभी कार्य कर चुकनेपर पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता था। उसकी महारानीका नाम श्रीकान्ता था । श्रीकान्ताने अपने दिव्य सौन्दर्यसे काम कामिनी-रतिको भी पराजित कर दिया था। दोनों दम्पतियोंका परस्पर अटूट प्रेम था। शरीर स्वस्थ और सुन्दर था धन सम्पत्तिकी कमी नहीं थी और किसी शत्रुका खटका नहीं था, इसलिये वे अपनेको सबसे सुखी समझते हुए समय बिताते थे। धीरे धीरे श्रीकान्ताका यौवन समय व्यतीत होने को आया, पर उसके कोई सन्तान नहीं हुई । इसलिये वह हमेशा दुखी रहती थी। एक दिन रानी श्रीकांता कुछ सहेलियोंके साथ ममानको छतपर बैठकर नगरकी शोभा निहार रही थी कि उसकी दृष्टि गेंद खेलते हुए सेठके लड़कोंपर पड़ी। लड़कोंको देखते ही उसे पुत्र न होनेकी चिन्ताने धर दवाया। उसका प्रसन्न मुख फूलसा मुरझा गया, मुखसे दोघे और गर्म गर्म श्वासें निकलने लगी, आंखोंसे आंसुओंकी धारा बह निकली। उसने भग्न-हृदयसे सोचा-जिसके ये पुत्र हैं उसी स्त्रीका जन्म सफल है । सचमुच, फलरहित लताके समान वन्ध्या-फल रहित स्त्रीकी कोई शोभा नहीं होती है। सच कहा है कि पुत्रके बिना सारा संसार शून्य दिखता है, इत्यादि विचार कर वह छतसे नीचे उतर आई और
और खिन्न चित्त होकर शयनागारमें पड़ रही। जब सहेलियों द्वारा राजाको उसके खिन्न होनेका समाचार मिला तब वह शीघ्र ही उसके पास पहुंचा और कोमल शब्दोंमें दुःखका कारण पूछने लगा। बहुत बार पूछनेपर भी जब श्रीकान्ताने कोई जवाब नहीं दिया तब उसकी एक सहेलीने, जोकि हृदयकी बात जानती थी, राजाको छतपरका समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। सुनकर उसे भी दुःख हुआ पर कर ही क्या सकता था ? आखिर धैर्य धारण कर रानीको