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॥दोहा॥ नव प्रकारे पुन्य नीपजै, तेकरणी निर्वद्य जाण । बयांलीस प्रकारे भोगवै, तिणरी बुद्धिवन्त करज्यो पिछाण ॥ २ ॥ पुन्य निपजै तिण करणी मझे, निरजरा निश्चयजाण, जिण करणी में जिन
आगनया, तिणमें शंकामत श्रांण ॥२॥ केईसाधू बाजै जै नरा, त्यांदीधी जिन मार्ग में पूठ, पुन्य कहै कुपात्र ने दियां, त्यांरीगई अभ्यन्तर फूट ॥ ३ ।। काचो पाणी अणगल पावै तेहने, कहछै. पुन्यनें धर्म । ते जिन मार्ग में बेगला,भूला अज्ञानी भर्म ॥ ४ ॥ साधु बिना अनेरा सबनें, सचित अचित दियां कहै पुन्य ।। बलि नाम लेवै गणाअं. गरो, ते पाठ बिना अर्थ छै सुन्य ॥५॥ किण हिक ठाणां अंगमें, ये घाल्यो छै अर्थ विपरीत । ते मघला गणांगमैं नहीं, जोय करो तहतीक ॥६॥ पुन्य निपजै छै किण विधि, ते जोवो सूत्ररै म्हांय । श्रीबीर जिनेश्वर भाषियो, ते सुणज्यो चित; ल्याय ॥७॥
॥ भावार्थ ॥ अब पुन्य मयी शुभकर्म जीवके किस कर्तव्यके करणेसे लगते है सो कहते हैं, पुन्य नवप्रकार से उपार्जन होताहै वोह करणी निर्वः .