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(४५) दूगल तणां, काम भोग शब्दादिक जाण । मींग लागै छै कर्म तणें बसे । ज्ञानी तो जाणें जहर समान ।। २ ॥ जहर शरीर में तिहां लगे, मीठा लागै नीमपान । ज्यूं कर्म उदय थी जीवनें, भोग लागै अमृत समान ॥ ३ ॥ पुन्य रा सुख छै कारमा, तिण में कला म जाणों काय। मोह कर्म बस जीवडा, तिणमें रह्या लपटाय ॥ ४॥ पुन्य पदार्थ शुभ कर्म छै, तिण री मूल न करणी व्हाय। ते यथा तथ्य प्रगट करूं, ते सुण ज्योचितल्याय॥शा
॥भावार्थ ॥ नव पदार्थों में पुन्य पदार्थ तीसरा है पुन्य को संसारी सुख मान रहे हैं काम भोग शब्दादिक विषय जीवको पुन्योदय से मिल तो है सो उन्हें जीव सुख मयी जानरहे हैं परंतु पुन्य के सुख पु. द्गल भयी है सो काम भोग शब्दादिक कर्मों के बसस मिष्ट लगे हैं लेकिन शानी तो जहर समान जानते हैं जैसे जहर शरीर में व्यापने से नीमके पान मीठे लगते हैं वैसे ही मोहकर्म के वशीभूत जीव होके पुन्यके पुद्गलिक सुखों को अमृत समान मान रहे हैं परंतु पुन्य के सुख कारमा याने अथिर हैं इससे कुछ भी जीवकी गरज नहीं सरती है क्योंके पुन्य के सुखों में प्रधी होने से पाप का बन्ध होता है इसलिए कुछ करामात नहीं जानना पुन्य तो शुभ कर्म है इसकी चान्छा किंचित् भी नहीं करणा चाहिए, अव पुन्य पदार्थ का यथार्थ वर्णन करता हुँसो येकाग्रचित्त करके सुनो।
॥ढाल ॥ ॥ अभियाराणी कहै धायनें । तथा ॥जीव मोह अनुकम्पा न आणिए । एदेसी॥पुन्य तो पुदग;