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(४२) छाया तावडो प्रभाः क्रान्तिछ, यह सघला भाव पुद्गल जाणजी । अंधारो ने वलिउद्योतछै, येह भाव पुद्गल पिछाणजी !! हिव ।। ५७ ॥ हलको भारी सुहांलो खरखरो, गोल वाटलादिक पांत्र सं. गाजी । 'घडा पडाने वस्त्रादिके, सघला भाव पुदगल जाणजी ।। हिव ॥५८॥ व्रत गुलादिक दसू विघय, भौजनादिक सर्व वखाणजी । वस्त्र विवध प्रकारना, येह सघलाही भाव पुदगल जाणजी ।। हिंद ।। ५ ।। सेंकडां मण पुद्गल बल गया, द्रव्यतो नहीं वलै असमातजी। एभावै पुद्गल ऊपन्नाहुता,ते पिण भावे पुद्गल विलैजातनी हिव। ॥६॥ सैंकडां मण पुद्गल ऊपन्ना, द्रव्य तो नहीं अपना लिगारजी। ऊपना तेहिज विणससी, पिण द्रव्यरो नहीं विगारजी। हिव ॥६१॥ द्रव्य तो कदेही विणसे नहीं, तीन ही कालरे म्हांयजी, ऊपजै विणसे तेतो भावछै, ते पुदगल तणी पर्याय जी ।। हिव ॥६॥ पुदूगल ने कह्यो सास्वतो. सास्वतो, द्रव्याने भावरै न्याय जी । कहयों के उत्तराध्ययन छत्तीसमें, तिणमै शंका मत प्राणज्यो कायजी ॥ हिव ।। ६३ ।। अजीव द्रव्य श्रो;