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________________ * श्रीवीतरागाय नमः - हमारी श्रात्मोन्नति । धार्मिक भव्य हलकर्मी जीवों को विचारना चाहिए कि हनारी आत्मोन्नति कय और कैसे होगी ? क्या मनमानी लोकप्रिय मींठी २ बातों करने से ? या पय मिश्री समान मिष्टवचन सुनने से ? 'या मनोहर मनोहर रूप देखने से ? या अंतिश्रेष्ठ सुगंध मुंघने से ? या श्रमृतंसमानं भोजन करने से ? या मनइच्छित वस्त्राभस्त्रयादि के स्पर्श करने से ? किन्तु नहीं नहीं कदापि नहीं । उपरोक्त विषय सेने सवाने और अनुमोदने से श्रात्मोन्नति किञ्चित् भी नहीं हो सकती है ? होसकती है सिर्फ़ धर्म करने से ? वो धर्म क्या और किस तरह कियाजाता है ? इसकी पहिचान करनी अत्यावश्यक है । इस अपार असार संसार में अनेक तरह के धर्म और अनेक तरह के धर्मावलम्वी हैं, कोई कहते हैं पृथ्वी, पानी, वायु, अग्निं, और आकाश, इन पांच तत्वमयी सर्व वस्तु हैं श्रात्मा कोई वस्तु हैही नहीं न स्वर्ग है न नर्क है और न कोई पुन्य पाप है, कोई कंहते हैं नहीं नहीं पञ्चतत्वमयी शरीर है इस में अन्तरगत आत्मा अलग है सो सदा अकर्ता अभोक्ता है। कोई कहता है इस सृष्टी को परमेश्वर ने बनाई है सुख दुःखदायक परमेश्वर ही है जैसी ईश्वर की इच्छा हो वैसा ही प्राणियों को करना होता है स- मस्तकार्य के करता हरता परमेश्वर ही है, कोई कहते हैं नहीं न हीं करता कराता परमेश्वर कुछ भी नहीं जैसा जैसा कर्म जीवात्मा करता कराता है उसका फल जीवात्मा को परमेश्वर देता है चोरासीलक्षजीवायोनी में परमेश्वर ही शुभाशुभ कर्मानुसार भ्रमण कराता है, कोई कहते हैं उपरोक्त यांत सब झूठ हैं, ईश्वर कुछ करता कराता नहीं वह तो श्रंकर्ता श्रभक्तां अछेदी अभेदी - जोगी श्ररोगी असोगी श्ररूपी अजर अमर अचल अटल परमानन्द ज्योतिस्वरूप निरञ्जन निराकार है, संसारी जीव भावी वश जैसा कर्म करता है वैसा ही भोगता है, वे कर्म दो प्रकार के हैं '
SR No.010702
Book TitleNavsadbhava Padartha Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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