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(१७१) दश प्रकार कहते हैं-गुरू श्रावे तब उठ के ऊमा होला १, आशण छोडना २, श्राशण आमंत्रणा तथा हर्प सहित दंना ३, सत्कार देना ४, सनमान देना ५, वंदना करनां६, हात जोडके ऊमा रहना ७, गुरू को आते देख सनमुख जाना ८, गुरू ऊमारहे तब तक ऊमा रहना ६, जावे तब पोहचान को जाना १०॥ २-प्रण अाशातना विनय ४५ प्रकारसे अरिहन्त १,अरिहन्त प्ररूपित धर्म २, भाचार्य ३, उपाध्याय ४,थविर ५, कुल ६. गण ७, संघ ८, कृयावादी ६, संभोगी १०, मतिज्ञानी ११, श्रुत शानी १२, अवधि ज्ञानी १३,मन पर्यव हानी १४, केवल शानो १५, इन्हों की श्राशातना न करणी १-लेवा भक्ति करणों २-गुण ग्राम करके दीपानां ३, अर्थात् उपरोक्त पंदरह घोल कहे जिन्हों का येह.३ प्रकार से : विनय
करना तो पंदरह तीया पैंतालीस हुये।. ३-चारित्र विनय अर्थात् सामायक आदि पांचो चारित्रियाका विनय भाक्ति यथायोग करणां तथा चारित्रया से निरदोष
संभोग करना। ५-मन विनय अर्थात् चारै प्रकार का सावध मन को निधारना याने सावध मन नहीं प्रवाना और चारै प्रकारका निरवध
मन प्रवर्तीनां। . ५-धचन विनय अर्थात् बार प्रकारका सावध वचन तजके बारे
प्रकार का निरपद्य बचन बोलना। ६-काया विनय अर्थात् सात प्रकार के कायाके जोगों को जय
रहा युत प्रवर्तीना। .. - -लोक व्यवहार विनय सात प्रकार से।
१-गुरु से समा प्रवर्तनां यान गुरू से विमुख न होना।
२-गुरु की धाशा में रहना । ३-सानादिक निमित्त गुरुका कार्य करना। • ४-शान पढाया जिन्हों का विनय करना।