________________
हुवै न्यारा । समें समें खिरै छै अनन्तजी॥ या॥ ॥ ६ ॥ ऊ' रहै ते उगोदरी तप छै । ते तो द्रव्य ने भाव छै न्यार जी ॥ द्रव्य तो उपग्रण ऊणा राखें । बलि पूरो न करै श्राहारजी ॥ या ॥१०॥ भावें ऊंगों क्रोधादिक निवरतै । कलहादिक देवै. निवारजी ।। समता भाव छै अाहार उपधि थी । एहवो अगोदरी तपसारजी ॥ या ॥ ११ ॥ भिक्षाचरी तप भिक्षा त्याग्यां हुवै । ते अभिग्रह छै विवध प्रकारजी ॥ द्रव्य क्षेत्र काल भाव अभिन. ह छै । त्यांरी छै बहु विस्तारजी ॥ या ॥ १२ ॥ रश रो त्याग कर मन सूधै । छोडयो विघयादिक रो स्वादजी ।। श्ररश विरश आहार भोगवै समता. सुं । तिणर तप तणीं हुवै समाधजी ॥या॥१३॥ काया क्लेश तप कष्ट कियां हुवे । अणशण करै विविध प्रकारजी ॥ शीत तापादिक सहै खाज न खिौँ । वलि न करै शोभ ने सिणगारजी ॥या।। ॥ १४ ॥ प्रत संलेहणिया तप च्यार प्रकारे। ज्यां- . रो जुवो २ छै नामजी ॥ कषाय इन्द्री ने जोग सलेहणा । विवत सेंणाशण सेवणां तांमजी या।। ॥ १५॥ श्रुत इन्द्री ने विषय नां शब्द सुं रूंधै ।