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( १२८) श्रव छै तामहो । भ ॥ कषाय कर्म अलगा हुयाँ जीवरै । अकषाय संबर हु महो ॥भ ॥। ॥ ४ ॥ थोडा थोडा सावध जोगां ने रूधियां । अजोग संबर नहिं थाय हो ॥ भ ।। मन बचन कायास जोग रूंधै सर्वथा। जब अजोग संबर हुप्रै तायहो ॥ भ ॥ ॥५॥ सावध जोग मांग रूंधै सर्वथा । जबतो सर्व प्रत संबर होयहो. ॥भ ॥ पिण निखद्य जोग वाकी रह्या तेहनें । तिणसुं अजोग संवर नहिं कोयहो । भ ॥ सं ॥ ॥६॥ प्रमाद श्राश्रवनें कषाय जोग आश्रय ।। । यह तो नहिं मिटै कियां पचखाणहो ॥ भ॥ येतो सहमें मिटैछै कर्म अलगा हूयां तिणरी अंत. रंग किजोपिछाणहो । भ ॥ सं ॥ ७॥शुभ ध्याननें लेश्यासुकर्म कटियां थकां । जब अप्रमादसंवर थायहो॥ भ ।। इमहिज करतांअकषाय संवर हौ । इम अजोग संवर होय जाय हो। भ ॥ सं॥८॥ समकित संवर ने सर्व व्रत संवर। ये तो हुत्रैछै कियां पचखाणहो।भ ॥ अप्रमाद अकषाय अजोग संवर हु।।ते तो कर्म खय हुवां जांणहो ॥ भ सं| हिंसा झूठ चोरी मैथुन परिंगरो। ये तो जोग आश्रक