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________________ पापों की विशुद्धि का मार्ग-- आलोचना ४७ कैसे तुझे दंड हूँ और कैसे तेरा धन ग्रहण करूं ? और वह व्यक्ति कहता है कि मै चोर हूं, मैने आपका धन चुराया है, अत. मुझे दंड दीजिए और मेरा घन ले लीजिए। उसने मागे कहा-महाराज, आपके गुप्त खजाने की चावी मेरे पास थी, उससे मै गुप्त खजाने से अब तक चोरिया करता । अब आपका राज्य आर्थिक सकट से ग्रस्त है, दुप्काल भी पड़ रहा है और दूसरे राजा ने राज्य पर आक्रमण भी किया हुआ है। ऐसी दशा में आपको गुप्त खजाने की चावी देता है और भंडार को भी संभलाता हूं। पर पहिले मुझे दंड देकर और मेरा धन लेकर मुझे शुद्ध कर देवें। उसके इस प्रकार बहुत कुछ अनुनय-विनय करने पर भी जब राजा किसी प्रकार उसे चोर मानने और उसका धन लेने को तैयार नहीं हुआ, तब उसने महारानी जी के पास जाने के लिए राजा से आज्ञा मांगी। राजा ने 'हां' भर दी। वह महारानी के पास पहुंचा और उनसे बोला—महारानी जी साहब, मै आपका चोर हू। रानी ने पूछा-- भाई, तू चोर कैसे है ? तव उराने उपयुक्त सर्व वृत्तान्त उनसे कहा : रानी बोलीजब महाराज, तुझे चोर मानते और तेरा धन लेने के लिए तैयार नही है, तब मैं कैसे तुझे चोर मान सकती हूं और कैसे तेरा धन ले सकती हूँ ? फिर जो चोर होता है, वह अपने मुख से नहीं कहता-फिरता है कि मैं चोर हूं और मेरा धन ले लीजिए। उसने बहुत कुछ आग्रह किया और यथार्थ वात भी कही। परन्तु रानी साहब न उसे चोर मानने को तैयार हुई और न उसका धन लेने के लिए ही। अब वह महारानी सा० के पास से महाराजकुमार के पास गया और उनसे भी उक्त सारी बातें कहकर और धन ले कर अपने को शुद्ध करने की बात कही । उन्होने भी उसे चोर मानने और धन लेने से इनकार कर दिया। भाइयो, आप लोग बतायें कि हमने जो पाप किया और उसे भगवान के सामने रख दिया, तो क्या भगवान हमें अपराधी मानेंगे ? कभी नहीं । वे यही मानेगे कि प्रमाद-वश इससे यह भूल हो गई है, अत यह क्षमा का पात्र है। उस व्यक्ति ने जब चोरी की थी, तब वह चोर था। किन्तु जिसकी चोरी की थी, वह जब उससे ही अपना अपराध कह रहा है और उसका प्रायश्चित भी लेने को तैयार है, तब वह चोर नही रहा । अब तो वह साहूकार बन गया है । जब महाराजकुमार ने उसे चोर नही माना और न उसका धन लेना स्वीकार किया, तब उसने महाराज, महारानी और महाराज कुमार इन तीनो को एकत्रित करके निवेदन किया कि मैं चोर ह और उसके दंड रूप मेरा सव धन ले लीजिए । तव राजा ने कहा- यदि तू चोर है, तो बता, किस खजाते
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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