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उदारता और कृतज्ञता
छोड देते थे । हमारे ऋषि महर्षियो ने भी यही शिक्षा दी है कि अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वाऽपि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्ति-संसृतिरन्यथा ||
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यदि यह धन-माल, ये इन्द्रियों के भोग-उपभोग- सम्बन्धी विपय और सांसारिक पदार्थ चिरकाल तक तुम्हारे पास रह करके भी एक दिन अवश्य नष्ट होने वाले हैं, तो तुम्हें उनका स्वयं ही त्याग कर देना चाहिये । ऐसा करने से तुम मुक्ति को प्राप्त करोगे । यदि स्वयं त्यागे नहीं करोगे, तब भी यह तो एक दिन नष्ट होने ही वाले है और इन सबको छोड़कर तुम्हें अकेला ही संसार से कूच करना निश्चित है, उस अवस्था में तुम्हे संसार मे ही परिभ्रमण करना पड़ेगा ।
वरम् । कानने ॥
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भाई, इस गुरु मन्त्र को और सनातन सत्य को सदा हृदय में धारण करो और त्याग के अवसर पर अपने हृदय को छोटा मत बनाओ । दीनता के वचन मत बोलो ।। ऐसी दीनता से तो मनस्वी मनुष्य मरना भला समझते है । कहा भी है
जीवितान्तु महादन्याज्जीवानां मरणं मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन
तुम्हें भी अपने पुरुषार्थं पर
अरे, इस महादीनता से वीतने वाले जीवन से तो जीवों का मरना ही भला है । मनुष्य को सिंह के समान पुरुषार्थी और पराक्रमी होना चाहिए । देखो - सिंह को जंगल में मृगो का राजा कौन बनाता है ? कोई नहीं । वह अपने पुरुषार्थ से ही जगल का राजा बनता है । भरोसा रखना चाहिए और सदा सिंह के समान अपना उन्नत मस्तक और ऊँचा हाथ रखना चाहिए | उत्तम पुरुष वे ही कहलाते हैं प्रसन्न चित्त रहते है और मुख पर चिन्ता को है । मनस्वी मनुष्य अपनी बुद्धि को ठिकाने रखते हैं, होने देते हैं । और कैसा भी संकट का समय आ जाय, खोज ही लेते है ।
जो कि हर परिस्थिति मे आभा भी नही आने देते
उसे इधर से उधर नही उससे बचने का मार्ग
एक समय की बात है, चार मित्रो ने परदेश में जा करके धन कमाने का विचार किया । उनमें एक था राजा का पुत्र, दूसरा था मंत्री का पुत्र, तीसरा था पुरोहित का पुत्र, और चौथा था नगर सेठ का पुत्र । परदेश मे जाकर खूब व्यापार किया । लाभान्तराय के क्षयोपशम से कमाई भी हुई । करोड़ो का धन उन्होने घरों को भेज दिया और अन्त में स्वयं घर लौटने का