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___ आध्यात्मिक चेतना
३६५ रही है, व्यर्थ ही महाराज के कहने से या लोगो की देखा-देखी यह उपवास ले लिया, इत्यादि विकल्प उठते हैं, तो स्वयं सोचो कि उससे तुम्हे कितना लाभ हुआ ? एक मोहर के स्थान पर एक पैसे का लाभ मिला । इसलिए आचार्यों ने आज्ञा दी है कि
समीक्ष्य व्रतमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नतः ।
छिन्नं दात् प्रमादाहा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा ।। पहिले खुव सोच विचार करके व्रत ग्रहण करना चाहिए । फिर जिस व्रत को ग्रहण कर लिया, उसे प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिए । यदि फिर भी दर्प से या प्रमाद से व्रत भंग हो जाय, तो तुरन्त उसे पुनः प्रायश्चित्त लेकर धारण कर लेना चाहिए ।
अतएव आप लोगों को आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए और अपने भीतर के कुसंस्कारो को दूर करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार सावद्य कार्यो का परित्याग कर आत्मस्वरूप को जागृत करने में लगना चाहिए। आप भले ही साधुमार्गी हों, या तेरहपंथी हों, आश्रम-पंथी हों, गुमानपंथी या तारणपथी हो, दिगम्बर हों या श्वेताम्बर हों ? किसी भी सम्प्रदाय के हों, सबका लक्ष्य आत्मस्वरूप की प्राप्ति करना है। जैसे किसी भी वस्तु का कोई भी व्यापारी क्यों न हो, सभी का लक्ष्य एक मात्र धनोपार्जन का रहता है, इसी प्रकार किसी भी पंथ का अनुयायी कोई क्यों न हो सवको अपने ध्येय प्राप्ति का लक्ष्य रहना चाहिए। भाई, जो समदृष्टि होते है, उनका एक ही मत होता है और जो विपमहष्टि होते हैं उनके सौ मत होते हैं। लोकोक्ति भी है कि 'सौ सुजान एक मत' । समझदारो का एक ही मत होता है। आत्म-कल्याणथियो का भी एक लक्ष्य होता है कि किस प्रकार से हम अपना अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करें। सौ मतवालो की दुर्गति होती है किन्तु एक मतवाले सदा सुगति को प्राप्त करते है। यहा एक मत से अभिप्राय है एक सन्मार्ग पर चलने वालो से । जो सन्मार्ग पर चलेगा, वह कभी दु.ख नहीं पायगा ।
धर्म पर बलिदान हो जाओ! भाइयो, समय के प्रवाह और परिस्थितियो से प्रेरित होकर मापके पूर्वज अनेक सम्प्रदायो मे विभक्त अवश्य हुए। परन्तु जब कभी विधर्मियो के आक्रमण का अवसर आता था, तो सब एक जैनशासन के झण्डे के नीचे एकत्रित हो जाते थे और विर्मियों का मुकाबिला करते थे। यह उनकी खूबी थी। परन्तु माज उपर से संगठन की बात की जाती है, लम्बे चौड़े लेख लिखे जाते हैं नीर लच्छेदार मीठे और जोशीले भापण दिये जाते है । किन्तु अवसर