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धर्मकथा का ध्येय
३५३ शूली से सिंहासन कर दिया और सारे नगर-निवासी धर्म की जय बोलते हुए तुम्हारे घर के बाहिर खड़े है । पति के ये वचन सुनकर मनोरमा ने नेत्र खोले तो उसकी आखो से मानन्दाश्रु ओं की धारा बह निकली। तत्पश्चात् सुदर्शन ने देवता का मधुर शब्दों मे आभार मानकर उसे विसर्जित किया और नगरनिवासियों को भी हाथ जोड़कर विदा किया।
तत्पश्चात् सुदर्शन ने पारणा की और अपना अभिप्राय मनोरमा से कहा कि जब मेरे ऊपर यह सकट आया था तो मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि यदि मैं इस संकट से बच जाऊँगा तो साधुव्रत स्वीकार करूंगा। मैने संसार के सब सुख देख लिए हैं। ये सब प्रारम्भ में मधुर दिखते हैं किन्तु परिपाकसमय महाभयंकर दुख देते हैं। यदि मैं घर में न होता तो यह संकट क्यों भाता । अतः तुम मुझे दीक्षा लेने की स्वीकृति दो । मनोरमा ने कहा-'नाथ, जो गति तुम्हारी सो ही हमारी' मैं भी आपके विना इस घर में रहकर क्या करूंगी। मैं भी सयम धारण करूंगी। इसके बाद उन दोनो ने मिलकर 'घर का सारा भार पुत्र और पुत्र-वधुओ को सौपकर संयम धारण कर लिया। सुदर्शन साधु-संघके साथ और मनोरमा साध्वी संघ के साथ संयम-पालन करते हुये विचरने लगे।
पाप का भंडाफोड़ इधर जैसे ही महारानी अभयमंती को पता चला कि सुदर्शन की शूली सिंहासन बन गई और वह जीवित घर वापिस आ गया है, तब वह राजमहल के सातवें खंड से गिर कर मर गई और व्यन्तरी हई। जब साधु वेप मे विचरते हुए सुदर्शन मुनिराज एक बार जंगल मे रात के समय ध्यानावस्थित थे, तब उस व्यन्तरी ने इन्हें देखा और पूर्वभव का स्मरण करके उसने अपने शृंगार-रस-पूरित हाव-भाव-विलासो से उन्हे डिगाने के भरपूर उपाय किए । मगर जब उन्हें किसी भी प्रकार से नहीं डिगा सकी, तव उसने सैकड़ों प्रकार के भयंकर उपद्रव किये । पर सुदर्शन मुनिराज गिरिराज सुदर्शन मेरु के समान अचल और अडोल रहे। अन्त मे थक कर वह हार गई और प्रभात हो गया, तब वह भाग गई । कुछ समय पश्चात् सुदर्शन मुनिराज कर्मों का नाश कर मोक्ष पधारे और मनोरमा साध्वी भी संयम पाल कर जीवन के अन्त मे संन्यासपूर्वक शरीर त्याग कर देवलोक मे उत्पन्न हुई। २३