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________________ प्रवचन-गुघा जड़ों में पहुंचकर वह नाना प्रकार रसवाला बन जाता है । गन्ने की जड़ में पहुँचकर वही मीठा बन जाता है, नीबू की जड़ में पहुँचकर वही खट्टा और नीम की जड़ में पहुंचकर वहीं कडुमा चन जाता है। यह उस पानी का दोष नहीं है। किन्तु प्रत्येक वृक्ष की प्रकृति का प्रभाव है। जिसकी जैसी प्रकृति होती है, वह तदनुसार परिणत हो जाता है। इसी प्रकार भगवान् की वाणी तो विश्व का हित करनेवाली—कल्याण कारिणी-ही होती है। किन्तु वही मिथ्यात्वी जीवों के कानों में पहुँचकर विपरीत रूप मे परिणत हो जाती है, क्योकि मिथ्यात्वियों के भीतर मिथ्यात्व रूपी महाविप भरा हुआ है । दूध का स्वभाव मधुर ही है, परन्तु पित्तज्वर वाले व्यक्ति को वह कडुआ ही प्रतीत होता है । कहा भी है पित्तज्वरवतः क्षीरं तिक्तमेव हि भासते' इसीप्रकार वही दूध पीकर सर्व साधारण व्यक्तियो में अमृत रूप से परिणत होता है किन्तु सर्प के द्वारा पिया गया दूध विप रूप ही परिणत होता है । इसमें दूध का दोप नहीं, सर्प की प्रकृति का ही दोष है। हा, तो भाई वह कपिला अब सुदर्शन के साथ समागम के उपाय सोचने लगी । पर पुरोहित के घर पर रहते हुए यह संभव नहीं था । यद्यपि कपिला सदाचारिणी थी और धर्म-अधर्म को भी पहचानती थी। परन्तु उसके ऐसा मोहकर्म का उदय आया कि वह कामान्ध हो गई और पर-पुरुप के समागम के लिए चिन्तित रहने लगी। भाइयो, कर्मों की गति विचित्र है । उनकी लीला अपार है। कौन जानता है कि किस समय क्या होगा ? आप लोगों ने अब तक क्या यह वात कभी सूनी कि जैन साधु चतुर्मास पूर्ण होने के पहिले ही विहार करें। परन्तु आज यह भी सुनने में आ रहा है कि तुलसी गणी को अपने संघ के साथ कार्तिक सुदी द्वादशी को ही विहार करना पड़ा है। यह कौन सुनाता है ? समय ही सुनाता है । समय पर जो बातें होनी होती हैं, वे हो जाया करती हैं। यह कितनी बुरी बात हो गई। साधु-मर्यादा और समाज के नियम के प्रतिकूल यह घटना घटी है। समय के प्रवाह को कौन रोक सकता है ? जो बात समय को अभीप्ट है, वह हो ही जाया करती है, तो भी सबको उससे शिक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए। लोग आज कह रहे है कि जैन समाज का जनबल, धन-बल और धर्म-बल कहां चला गया ? विचारने की बात है कि ऐसा क्यों हुआ ? उत्तर स्पष्ट है कि जैन समाज में एकता नहीं, एक का मत नही और पारस्परिक सहानुभूति नहीं। इसी का फल है कि जो अनहोनी वात भी आज कानों मे सुन रहे हैं।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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