________________
३४२
प्रवचन-सुधा
व्यय करके उत्तम भोजन तैयार कराया और उसमें का एक ग्रास अपने मुख में रखकर उसे ही दूसरे को खाने के लिए देने पर क्या वह खा जायगा ? अरे, वह तो उस उच्छिष्ट ग्रास को लेने के लिए तैयार तक भी नहीं होगा। प्रत्युत आपसे कहेगा कि क्या मुझे काक या स्वान समझा है, जो कि उच्छिष्ट खाते हैं । इन सब बातों से स्पप्ट ज्ञात होता है कि शरीर सदा ही अपवित्र है, वह ऊपरी स्नानादि करने से कभी शुचि नहीं हो सकता। शरीर का धम ही सदना, गलना और विनशना है । सन्तों ने ठीक ही कहा है--
अरे संसारी लोगों ! गंदी देही का कैसा गारवा ॥टर ॥ छिनमें रंगी चंगी दीसे, छिनमें छेह दिखावे ।
काची काया का क्या भरोसा, क्या इनसे मो लावेरे । हे मानव, तू इतना अभिमान क्यों करता है, क्यों इतना उफन रहा है ? कपड़े हाथ में लेता हैं कि कहीं धूल न लग जाय । परन्तु तेरे शरीर से तो यह धूल बहुत अच्छी है। इसमें से तो अनेक उत्तम वस्तुयें उत्पन्न होती है। किन्तु इस शरीर से तो मल, मूत्र, श्लेप्म, आदि महा घृणित वस्तुयें ही उत्पन्न होती हैं। जो शरीर कुछ समय पूर्व गुलाब के फूल जैसा सुन्दर दिखता था, वही कुछ क्षणों में ऐसा बन जाता है कि लोग समीप बैठना भी पमन्द नहीं करते हैं ।
राजा के इस प्रकार सम्बोधित करने पर कपिल पुरोहित का शुचि-मूलक धर्म का मिथ्यात्व दूर हो गया और वह भी अव राजा साहब और सुदर्शन सेठ के साथ तत्व-चर्चा के समय वैठने लगा। भाई. संगति का प्रभाव होता ही है। धीरे-धीरे पुरोहित को तत्त्व चर्चा में इतना रस आने लगा कि उसे समय का कुछ भान ही नहीं रहे ।
कपिला का संदेह भरा उलाहना जव पुरा हित रात्रि में उत्तरोत्तर देरी से पहुंचने लगा, तब उसकी कपिला स्त्री के मन में संदेह उत्पन्न हुआ कि मेरा पति इतनी रात बीते तक कहाँ रहता है ? भाई, स्त्रियो का स्वभाव ही ऐसा है कि पुरुष की किसी भी बात पर उसे वहम आये विना नही रहता। फिर रात के समय देर तक घर आने पर तो सन्देह होना स्वाभाविक ही है। एक दिन आधी रात के समय जब पुरोहित जी घर पहुंचे और द्वार खुलवाया तो कपिला पुरोहितानी उफनती हुई बोली