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सुनो और गुनो!
३२६ है, अयलेद्य और अशोज्य है । यह नित्य, सर्वगत, स्थाणु, अचल, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य कहा जाता है । इसलिए तु इसे अजर अमर जान और इनको दण्ड देने में किसी प्रकार का शोच मत कर ।
श्री कृष्ण के इस प्रकार उपदेश होकर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गया और अन्त में अपने शत्रु कों पर विजय पाई।
भाइयो, आत्मा के इन नित्य निर्विकारी स्वभाव का वर्णन प्राय: सभी आस्तिक दर्शनों में किया गया है । अतः हमें सभी मतों में जो उत्तर और सार वस्तुएं दृष्टिगोचर हों, उन्हें ले लेना चाहिए । सिद्धसेन दिवाकर तो भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं
सुनिश्वितं न: परतन्त्रयुक्तिषु स्फुररित या. काश्चन सूक्तिसम्पदः तवैव ताः पूर्णमहार्णवोत्थिताः जिन प्रमाणं तव वाक्यविषुषः ।।
हे जिनेन्द्र देव, परमतों में जो कुछ भी सूक्तिसम्पदाएं दृष्टिगोचर होती हैं, वे सब आपके पूर्वश्रु तरूप महार्णव से उठे हुए वचन-शीकर हैं, जल कण हैं यह सुनिश्चित है।
उक्त कथन का सार यही है कि जहाँ कहीं भी कोई उत्तम और सार-युक्त बात दिखे उसे विना किसी सन्देह के ग्रहण कर लेना चाहिए और जो भी
आत्म-अहितकारी दिखे उसे छोड़ देना चाहिए। पहले भली वरी बात को सुनना चाहिए, सुनकर समझना चाहिए और समझकर मनन करना चाहिए, फिर अहितकर को छोड़ देना चाहिए-इसे ही कहते हैं सुनना और गुनना।
सुना, पर गुना नहीं तो ..? ज्ञाता धर्मकथासूत्र में एक कथानक आया है कि पूर्वकाल में इसी भारत वर्ष की चम्पानगरी में एक माकन्दी नाम का सेठ था। उसके दो पुत्र हए-- जिनरक्ष और जिनपाल । वे सैकड़ों मनुष्यों को साथ लेकर और नाना प्रकार की चीजे लेकर व्यापार के लिए जहाज-द्वारा देशान्तर गये । वहां जब खुव धन कमाकर वापिस लौट रहे थे, तव समुद्री तूफान से जहाज नष्ट हो गया और वे एक काष्ठ-फलक के सहारे किसी टापू के किनारे जा पहुंचे। जब वे दोनों उस टापू पर जाने लगे तो एक पुतली ने भी मना किया । परन्तु वे नहीं माने और उस पर चढ़ते हुए चले गये। भाई, आप लोग ही जब बड़े बूढ़ों और गुरुजनों तक का कहना नहीं मानते, तो वै एक स्त्री का कहना तो कसे माने ।