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प्रवचन-मुधा
जाता है, परन्तु आचार्य को नहीं दीखने से वे इनकार नहीं कर रहे हैं । सेठजी का नियम था कि जब तक साधु तीन बार लेने से इनकार न कर दें, तब तक मैं पात्र में वहराने में नहीं रुगा, सो वह घी बहराता जाता है और वह पान से बाहिर वहता जाता है । न आचार्य इनकार कर रहे हैं और न वह वहराने से ही रुक रहा है। इस प्रकार एक-एक करके मेठने घी के सब पीयो का घी वहग दिया 1 सेठ के साथी लोग यह देखकर आचार्य की नाना प्रकार मे समालोचना करने लगे। कितने ही तो जोर-जोर ने भी कहने लगे--अरे, ये भाचार्य क्या अन्ो हो गये हैं ? जो घो बहा जा रहा है, पर य लेने ने इनकार ही नहीं कर रहे हैं । भाई लोगो का क्या है ? जरासे में इधर मे उघर हो जाते हैं। परन्त लाचार्य की श्रवण शक्ति चलो जाने में न वे किसी की बात सुन ही रहे पे और दृष्टि-मन्द हो जाने के कारण कुछ देख ही न पा रहे थे। लोग मेठजी के लिए भी भला-बुरा कहने लगे कि अरे ये माधु अन्धे और बहरे हो गये हैं तो क्या मेठजी भी अन्धे हो गये हैं, जो यह वहता हुआ घी भी उन्हें नही दीख रहा है । मेठजी इन सब बातो को देखते और सुनते हुए भी उन पर कुछ ध्यान नहीं दे रहे हैं और अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ है कि जब तक ये तीन वार इनकार नहीं कर देंगे तब तक मैं देना ही जाऊगा। माय ही यह विचार भी उनके मन में आ रहा है कि मैं तो सुपात्र के पात्र मे ही दे रहा हू. किसी ऐसे-वैसे अपान या पुपान को नहीं बहरा रहा हू । अत उनके मन मे लोगो की नाना प्रकार की बातें सुनत हुए भी किसी प्रकार का लोभ नहीं हुआ।
इधर जब उस देवने देखा कि इतना घी सेठ ने बहरा दिया और आचाय और सेठ की-दातार और पान दोनो की ही सर्व ओर से निन्दा हो रही है। फिर भी सेठ के मन मे किसी भी प्रकार का अणुमात्र भी दुर्भाव पैदा नहीं हो रहा है, तब उसे शकेन्द्र की बात पर विश्वास हुआ और उसने उसी समय नाचार्य महाराज के सुनने और देखने की शक्ति ज्यो की त्यो कर दी। तब मुनिराज ने कहा- भैया, यह क्या किया । तूने इतना मारा घी क्यो बहा दिया । मेठ बोला--गुरुदेव, बापने मना नही किया मो में वहराता चल गया । तव आचार्य ने कहा- भाई, क्या वताक ? जव से तूने मेरे पात्र मे घी वहराना शुरु किया, तभी से मेरे देखने और सुनने की शक्ति समाप्त हो गई ! अभी वह वापिन शक्ति प्राप्त हुई तो में तुम्हे मना कर रहा है। उसी समय उस देवने प्रत्यक्ष होकर पहिले बाचार्य का वन्दन-नमस्कार किया। फिर सेठ को नमम्बार करके बोला---मेठजी, शकेन्द्र ने आपकी जैसी प्रशसा की थी, मैंने आपको उमी के समान पाया। मैंने ही अपनी माया में आचार्य महाराज के