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प्रवचन-सुधा
आप निश्चिन्त रहे, आपया यह काम अवश्य हा जायगा। इस प्रकार वचनो से भी जो हिम्मत बधाते हैं, वे पुरुप भी आर्य कहलाने यान्य है। आज अधिकतर लोग सोचते है कि हमे दुसरो मे क्या मतलब है ? हम यो झझट मे पडे ? परन्तु ऐमा विचारना आर्यगना नहीं, किन्तु अनार्यपना है ।
आयंपुरुप की करुणाशीलता भाइयो, आप लोगो ने अनेक बार सुना होगा कि मेघरथ राजा की शरण मे एक कबूतर पहुचा और उसके पीछे लगा हुआ बाज भी आगया । अव माप लोग बतलायें कि उस कबूतर से राजा का क्या कोई स्वार्य था? नही था। किन्तु दुख से पीडित उसे जब शरण दे दी। तब बाज बोला--राजन्, मेरी शिकार मुझे सोपो । राजा ने कहा- क्षत्रिय लोग शरणागत के प्रतिपालक होते है। उसे हम आपको कसे मीप मकते हैं ? यह सुनकर वाज बोला-तों मैं भूखा हू, मुझे उसकी तोल बराबर अपना मास काटकर खाने के लिए दीजिए । राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली । तराजू और घुरी मगाई गई और एक पलडे पर बाज को बैठाया और दूसरे पर अपना मास काट-काट कर रखने लगा । भाई, यह थी राजा की करुणावृत्ति, जो सकट में पडे कतर के प्राण बचाने के लिए वे अपना मास भी काटकर देने के लिए तैयार हो गये । आप लोगो के पास भी यदि कोई आपत्ति का मारा आवे और आप सोचें कि इससे क्या लेना और क्या देना है ? तो यह बात आर्यपने के प्रतिकूल है । भाई, आपत्ति मे पडे पुरुप से लता भी है । लेना तो यह है कि हम अपने भीतर यह अनुभव करें कि आपत्ति-ग्रस्त व्यक्ति कितनी दयनीय दशा में होता है, वह कितना असहाय होता है और उस पर जो शक्ति सम्पन्न और सवल व्यक्ति घोर-जुल्म करते है, तो हमे उन दोनो को प्रकृति का सबक लेना है । और देना क्या है—साझ । अर्थात् उस शरणागत दुखी व्यक्ति से यह कहें कि भाई, तू घवडा मत । तेरी रक्षा के लिए मैं तयार ह । यदि कभी कोई व्यक्ति अपनी परिस्थिति के वशीभूत होकर आपके पास आता है तो उससे ऐसा मत कहो कि हमे तुमसे क्या लेना-देना है। भाई, यह मारा लोक-व्यवहार देने और लेने से ही चलता है। लोग रकम लेते भी है और देते भी हैं, तभी व्यवहार का काम चलता है । अपनी लडकी दूसरो को देते है और दूसरो की लेते भी हैं, तभी समाज का काम चलता है। देना और लेना मानव मात्र का धर्म है । दूसरो से गुण लो और साझ दो । साझ कितना दिया जाता है ? जितना आपके पास है, उतना । कल्पना कीजिए-आपके रहने के लिए एक कोठरी है और दो-तीन