________________
सफलता का मूलमंत्र : आस्था
२८१
किसी के गले में माला नहीं पहिनायी। कितने ही उम्मेदवार देवी-देवताओं की मनीती करते हुए सामने आये, पर हथिनी के आगे बढ़ने पर अपने भाग्य को कोसते रह गये । कहा है---
पग बिन कटं न पंथ, बांह विन हरे न दुर्जन । तप बिन मिले न राज्य, भाग्य विन मिले न सज्जन । गुरु विन मिले न ज्ञान, द्रव्य विन मिले न आदर । ताप विना नहीं मेह, मेह विन लव न दईर । विश्न राम कहै शाह वचन बोल अगर पीछा फीरे ।
ध्रग धग उन जीव को मन मिलाय अंतर करे ।। भाई, विना पूर्व जन्म की तपस्या के राज्य नहीं मिलता है । जिसने दान दिया है तपस्या की है, उसे ही राज्य लक्ष्मी मिला करती है।
हां, तो वह हथिनी घूमते-घूमते अन्त में पंडितों के मुहल्ले में गई । वहां उस ज्योतिपी जी के मकान के वाहिर चबूतरे पर मूलदेव अपने मित्रो के साथ बैठे हुए थे । हथिनी ने इनकी ओर देखा और गले में माला पहिना करके मस्तक पर से सुवर्ण कलश उठाकर उनका अभिपैक कर दिया । इसी समय आकाश-वाणी हुई कि यह राजा नगर-निवासियों के लिए आनन्द वर्धक होगा। राज्य के अधिकारियों ने सामने आकर उनका अभिनन्दन किया और सन्मान के साथ हथिनी पर बैठाकर राज-भवन ले गये। वहां पर उन्हें राजतिलक करके राजगादी पर बैठाया और तत्पश्चात् मृत राजा का अन्तिम संस्कार किया । बारह दिन बीतने के बाद समारोह के साथ राज्यगादी की पूरी रपमें अदा कर दी गई । और मूलदेव राजा बनकर आनन्द से रहने लगा। ___ भाइयो, इस कथानक के कहने का अभिप्राय यह है कि मूलदेव को प्रथम तो यह आस्था थी कि मैं जो दान देता हं सो उत्तम कार्य कर रहा हूँ। यदि मेरे पिता दान देने से रुष्ट होकर मुझे रोकते हैं, तो मैं इस सत्कार्य को नहीं छोड़ गा। दूसरे व उसे स्वप्न आया तो यह आस्था थी कि यह शुभ स्वप्न है, अतः अवश्य ही उत्तम फल देगा। तीसरी यह आस्था थी कि सच्चे ज्योतिपी के वचन कभी अन्यथा नहीं होते, अत: योग्य ज्योतिपी से ही इसका फल पूछना चाहिए।
जिनवधन पर आस्था वन्धुओ, इसी प्रकार आप लोगो की भी आस्था भगवान के वचनों पर होनी चाहिए कि भगवान ने मुक्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान व सम्यका