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प्रवचन-सुधा
हैं। उस आश्रम में साधु का एक चेला भी था ! उसके साथ बातचीत करते हुए मूलदेव सो गया। रात को दोनों ने स्वप्न में देसा कि आकाश से उतरता हुआ पूर्णमासी का चन्द्रमा आया और मेरे मुख द्वार से पेट में चला गया है । प्रातः काल होने पर चेले ने गुरु से अपना स्वप्न कहकर उसका फल पूछा। गुरु ने कहा- आज तुझे भिक्षा में एक बड़ा गोल रोट मिलेगा । मूलदेव भी वहीं बैठा हुआ सुन रहा था। उसे स्वप्न का फल जंचा नहीं, अत. उसने उनसे पूछना उचित नहीं समझा। भाई, स्वप्नादि का फल तो उस स्वप्न शास्त्र के वेत्ता अधिकारी व्यक्ति से ही पूछना चाहिए। यदि ऐसा कोई अधिकारी ज्योतिषी न मिले तो गाय के कान में कह देना चाहिए और यदि वह भी समय पर नहीं मिले तो जगल मे जाकर बोल देना चाहिए। परन्तु अजान, अभागी और पुण्यहीन व्यक्ति से नहीं कहना चाहिए, अन्यथा यथेष्ट फल नहीं मिलता है। तथा स्वप्न शास्त्र में यह भी लिखा है कि स्वप्न आने के बाद फिर नहीं सोना चाहिए। यह विचार कर मूलदेव ने अपने स्वप्न का फल उस साधु से नहीं पूछा और वहाँ से चल दिया।
भाइयो, स्वप्न एक निमित्तज्ञान है। निमित्तज्ञान के आठ भेद शास्त्रों में वतलाये हैं । यथा
अप्टौ महानिमित्तानि अन्तरिक्ष-भौम-अंग-स्वर-व्यञ्जन-लक्षण-छिन्नस्वप्न नामानि ।
शुभाशुभ फल के सूचक ये आठ निमित्त हैं- अन्तरिक्ष-भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न और स्वप्न । सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्रादि उदय-अस्त आदि के द्वारा भूत-भविष्य काल की वात को जानना अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है। पृथ्वी के स्निग्धता-रुक्षता, सघनता-सछिद्रता आदि को देखकर भूमि में छिपे हुए धनादि को जानना, भूकम्प आदि से जय-पराजय और हानि-वृद्धि को जानना भौम-निमित्त ज्ञान है । स्त्री-पुरुपादि के अंग-उपांगों को देखकर और उनको छूकर उनके सौभाग्य-दुर्भाग्य को जानना अंग निमित्तज्ञान है । मनुष्य और पशु-पक्षियों के अक्षर-अनक्षररूप शब्दों को सुनकर शुभ-अशुभ को जानना स्वर-स्वप्नजान है। मस्तक, गला, मुख आदि पर तिल-मसा आदि को देखकर उस व्यक्ति के हित-अहित रूप प्रवृत्ति को जानना व्यंजन निमित्तज्ञान है । शरीर में श्रीवत्स, स्वस्तिक, शंख, चक्र आदि शुभ चिन्हों को देखकर उसकी महानता और अशुभ चिन्हों को देखकर उसकी हीनता को जानना लक्षण निमित्तज्ञान है । वस्त्र, छत्र, आसन आदि को चूह आदि से कटा हुआ देखकर भावी अरिष्ट को, उपद्रव या संकट को जानना छिन्न निमित्तज्ञान है । स्वप्नी के