________________
धर्मादा की संपत्ति
आपको मालूम है कि मूत्ति-पूजक लोग अपने मन्दिरों में धातु-पापाण आदि की मूत्ति रखते हैं । यद्यपि उसमें देवता नहीं है, किन्तु देवत्व की कल्पना अवश्य है । यही कारण है कि मूति-पूजक लोग मन्दिरों में कोई भी लोकविरुद्ध, धर्म-विरुद्ध या पाप-कारक कार्य नहीं करते है । यह उस द्रव्य मूर्ति के अंकुश का ही प्रभाव है। देखो-पहिले स्थानकों में भी अंकुश था कि सचित्त जलादि नही लाना । परन्तु उस अंकुश के उठ जाने से सचित्त जल और फलादिक भी आने लगे हैं। लोग कहते हैं कि स्थानक से, उपाथय से या मन्दिर से हमारी यह चीज चोरी चली गयी । भाई, तुम ऐसी चीज धर्मस्थान पर लाये ही क्यों ? आपने धर्मस्थान का अंकुश नही रखा, तभी यह सब होने लगा है। पहिले मनुष्य धर्मस्थान पर ही नहीं, किन्तु घर पर ही यह अंकुश रखते थे और धर्मखाते की-धर्मादे की-रकम को अपने काम में नहीं लेते थे तो उनका परिवार यश पाता था।
सुकृत की शिला मुगलकाल में दिल्ली में एक सेठ जी रहते थे। उनके यह नियम था कि अपनी ही पूजी से जीवन-निर्वाह करेंगे, दूसरे की या धर्मादे की पूंजी से व्यवहार नहीं करेंगे। उनका कारोवार विशाल था और घर-परिवार भी भरापूरा था । उन्होंने अपने नियम की सूचना मुनीम-गुमास्तों को भी दे रखी थी
और घर पर स्त्री-पुत्रादि को भी कह रखा था कि अपने को परायी सम्पत्ति से लेन-देन नही करना है । न्याय-नीति से कमा कर खाना है ।
एक दिन की बात है कि जब सेठजी घर पर भोजन के लिए गये हए थे, और दुकान पर मुनीमजी ही थे, तब एक जर्जरित शरीर वाली बुढ़िया लकड़ी टेकती और कांपती हुई आई और दुकान पर आकर मुनीमजी से बोलीबेटा, अब आगे मुझसे चला नहीं जाता। अत: यह लादी (पत्थर को शिला) तू ही खरीद ले । मुनीमजी ने कहा-हमें इसको जरुरत नहीं है । तव बुढ़िया बोली-दिवालिये, सेठ की दुकान पर बैठा है और कोई चीज लेकर वेचने को आता है तो तू इनकार करता है ? और सेठ को इज्जत को धूल में मिलाता है। सैटजी का नाम सुन कर मुनीमजी चौंके और सोचने लगे-बात तो यह बुढ़िया खरी कह रही है। उससे पूछा-मांजी इमकी क्या कीमत है ? वह बोली- बीस हजार रुपये ! यह सुनते ही मुनीम सोचने लगा—अरे, चटनी बांटने जैसी तो यह वर्टया (गोलपथडी) है और कीमत वीस हजार कहती है । जरूर इसमें कोई खास बात होगी। यह सोचकर उसने लेने का विचार किया। मगर जब तिजोरी खोल कर देखा तो उसमें उत्तने रुपये नहीं थे । समीप ही