________________
२४८
प्रवचन सुधा
लौटता । वे पंडितों, कवियों, ज्योतिषियों और कलाकारों का मन्मान करते है । उनके हृदय में यह विचार बना रहता है कि मैंने उच्च कुल में जन्म लिया है, और लोग मुझे सरदार कहते हैं तो उस नाम के अनुरूप काम करना ही चाहिए । अन्यथा मेरा जीवन बेकार है और मुझे धिकार है। इस प्रकार से रवाभिमान की धारा उनके हृदय में सदा बहती रहती है । ऐने मरदार लोग धन के बर्च करने में बड़े उदार होते हैं, उसकी उनको चिन्ता नहीं होती है।
एक बार सालुम्बर रावजी अपने महल में जा रहे थे, तब एक 'मुजवन्द की डोरी टूट गई और वह पिछोले के पानी में गिर गया। उन्होंने इसका कोई खयाल नहीं किया और भीतर चले गये । वहां पर चवर होरने वाले ने भजवन्द के गिरने की बात कही, तो उन्होंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया । जब वे वापिस उधर से निकले और मौके पर आये और दूसरा मुजयन्द भी खोलकर पानी में डालते हुए उस व्यक्ति से बोले- क्यों यहीं गिरा था ! उसने कहा---मालिक, दूसरा भी क्यों डाल दिया तो बोले--अरे, तुझे खाली हाथ कैसे बतलाता। भाई ऐसे-ऐसे भी सरदार लोग होते हैं कि अनर्थक खर्च करते हुए भी हाथ संकुचित नहीं करते हैं ।
जिन सरदार को अपनी सरदारगी का स्खयाल होता है, जहां से निकल जायें या जहां भी पहुंच जायें, अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप कार्य किए बिना नहीं रहते । ऐसे लोग ही जनता के हितार्थ को बड़े बड़े ओपधालय, विद्यालय और भोजनालय खुलवाते हैं। उनकी दृष्टि अपने मोहल्ले में, गांव की गलियों पर
और नगर-निवासी प्रत्येक मनुष्य पर रहती है और यही चाहते हैं कि मेरे नगर में कोई दुखी न रहे । सब मेरे समान सन्मान के साथ जीवन-यापन करें। न वे किसी का अपमान करते हैं और न स्वय अपमान सहन करते हैं । संस्कृत की सूक्ति भी है
उत्तमा मानमिच्छन्ति, धन-मानौ च मध्यमाः ।
अधमा धनमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम् ॥ अर्थात्- उत्तम पुरुप सन्मान चाहते हैं । किन्तु अधम पुरुप तो केवल धन ही चाहता है, भले ही उसके पीछे उसे कितना ही अपमान क्यों न सहन करना पड़े । भाई, महापुरुषों के तो मान ही सबसे बड़ा धन है और वे अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए सदा उद्यमशील रहते हैं। कहा भी है--
आस्था सतां यश काये, नास्थायिशरीरके ।