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प्रवचन-सुधा वारहवा दोप है। अस्वाध्याय के दिनो में स्वाध्याय करना यह तेरहवा दोप है और स्वाध्याय के दिनो मे स्वाध्याय नही करना यह चौदहवा दोप है ।
अस्वाध्याय दोष . आजकल अधिकाश लोग अन्तिम चार दोपो की तो कुछ परवाह ही नहीं करते हैं और समझते हैं कि हम तो भगवान की वाणी ही वाचते हैं, उसे वाचने मे क्या दोष है। परन्तु भाई, भगवान ने जब स्वय इन्हे दोष कहा है, तब इनमे कोई गभीर रहस्य है । वह रहस्य यही है भगवान् की यह आज्ञा है कि 'काले काल समाचरेत्' अर्थात् जो कार्य जिस समय करने का है, उसे उसी समय मे करने पर वह भली भाति से सम्पन्न होता है और उसका जैसा लाभ मिलना चाहिए, वह मिलता है । अकाल मे स्वाध्याय करने पर अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। जैसे तीनो सन्ध्याए , चन्द्र-सूर्यग्रहण आदि के समय को स्वाध्याय का अकाल कहा गया है। इस समय स्वाध्याय करने से बुद्धिमन्दता
और दृष्टिमन्दता प्राप्त होती है । रजस्वला स्त्री को भी स्वाध्याय का निषेध किया गया है, क्योकि उस समय उसके शारीरिक अशुद्धि है । पहिले सब स्निया रजस्वला काल मे घर का कोई काम नही करती थी। परन्तु आज इसका कोई विचार नहीं रहा है। अरे, जिस रजस्वला के देखने और शब्द सुनने मान से बडी-पापड तक खराव हो जाते हैं । तथा एजस्वला स्त्री की नजर यदि पिजारे की तात पर पड जावे तो वह टूट जाती है। कहा भी है---
छांय पड़े जो छाण पर, मृत्तक ही गर जाय ।
जीवित नर नारी निकट, ज्ञान कहां ठहराय । उन्हे तो घर के किसी काम मे हाथ भी नहीं लगाना चाहिए । तब शास्त्रस्वाध्याय करना तो बहुत बड़ी बात है। ऐसे ममय स्वाध्याय करने से उल्टी भान की आसातना होती है। अतएव उक्त सभी दोपो का टाल करके ही स्वाध्याय करना चाहिए ।
शास्त्र की अंधभक्ति : कुछ अन्ध भक्त लोग शास्त्रो का पूजन करने और उनके आगे अगरबत्ती जलाने एब अक्षत पुप्प केशर आदि चटाने को ही ज्ञान-भक्ति समझते है । पर स्वाध्याय करने का नाम भी नहीं लेते है। एक स्थान पर देखा गया है कि जिनमन्दिर में तो एक प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रो का भण्डार था। भक्त लोग भगवान की पूजा में जैसे अक्षत, पुप्प और फलादिक चढाते मे ही