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प्रवचन-सुधा
तड़तड़-तड़तड़ नाड़ी टूटे, अनन्त वेदना व्यापी, मरण तनो तो भय नहि मनमें, करम जड़ों ने कांपी ।। काठनी भारी सोनी लीनी, अभो हेठी पटके, वहिल पड़ी पंछी ऊधरना, जब वमिया है झटकं ।।
समभाव में लीनता मेतार्य मुनि को तीव्र वेदना हो रही है, परन्तु वे समभाव में लीन हैं ! क्रमक्रम से एक-एक नस टूटने लगी। भाई, एक भी नस फट जावे तो मनुष्य का मरण हो जाता है । परन्तु उनकी एक पर एक नस टूट रही है और वे अपार वेदना का अनुभव करते भी कर्मों की नसे तोड़ने में संलग्न हैं। इसी समय सुनार ने लकड़ियो की भारी ली और पीछे के द्वार से उसे नौहरे में डलवाया । भारी गिरने के साथ ही इधर मुनि का शरीर भूमि पर गिरा और उधर कूकड़े के ऊपर लकड़ी की भारी पड़ने से उसके पेट में से वे सोने के एक सौ आठ ही जौ वाहिर निकल आये । सोनी ने भी देखा कि कूकड़े की बीट में वे सोने के जौ पड़े हुए हैं, तब उसने जाना कि इस कूकड़े ने ये जो चुग लिये थे ! उसने वे जी तो उठाकर के दुकान में रखे और विचारने लगा कि अब तो मैं विना मौत के मारा जाऊंगा? क्योंकि ये मुनिराज राजा थेणिक के जमाई और झुगमन्दिर सेठ के पुत्र हैं । अब जैसे ही राजा अंणिक को मेरे इस दुप्कृत्य का पता चलेगा, वैसे ही वे मुझे मरवाये विना नही छोड़ेगे । अब क्या करना चाहिए ! सहसा उसके मन विचार आया कि अब तो भगवान् की शरण में जाने से ही परित्राण हो सकता है, अन्यथा नहीं। यह सोचकर उसने मेतार्य मुनि के कपड़े धारण किये। और झोली में पात्र रखकर तथा हाथ में रजोहरण लेकर वह सीधा भगवान के समवसरण में पहंचा । भाई, जो महापुरुपो का सहारा लेवे तो उसे फिर कोई मारने वाला नहीं है । उसने जैसे ही समवशरण में प्रवेश किया कि उसकी ईर्या समिति के बिना ही आते हुए राजा श्रोणिक ने देखा तो विचार किया कि कौन से नये साधु आये है ? वह जाकर भगवान को चन्दन करके साधुओं की संपदा में बैठ गया। राजा श्रेणिक ने पूछा-भगवन् ! यहां पर मेतार्य मुनि नही दिखाई दे रहे हैं ? तव भगवान् ने कहा-श्रेणिक, मेतार्य मुनि ने आत्मार्थ को प्राप्त कर लिया है । श्रेणिक को इस नवागत साधु पर सन्देह हो ही रहा था और
और जब भगवान् से ज्ञात हुआ कि यह नवागत साधु ही उनके देहावसान का निमित्त बना है, तब उन्हें उस छद्मवेपी साधु पर भारी क्रोध आया । भगवान
ने उन्हें संबोधन करते हुए कहा-श्रेणिक, इस पर अब क्रोध करना उचित . नही । इसने तो मुनिवर का उपकार ही किया है। जो कर्म उदय में देरी से