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प्रतिसंलीनता तप
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के अनुसार आत्मशुद्धि करने में निमग्न रहना अर्थात् शुद्ध-मन-वचन-काय से पालन करने का नाम आचार्य-संलीनता है। आचार्य के प्रति शिष्य को सदा यही भाव रखना चाहिए कि गुरुदेव जो कुछ भी कहते हैं, वह हमारे ही हित के लिए कहते हैं । हम यदि उनकी आजा और अनुशासन में चलेंगे, उनका गुण-गान करेंगे और उनके प्रति सच्ची भक्ति रखेंगे तो हमारा ही कल्याण होगा और जिनशासन की उन्नति होगी । उपाध्याय संघस्थ शिष्यों को पढ़ाते हैं और कर्तव्य मार्ग का बोध प्रदान करते हैं । उनके प्रति भक्ति रखना, उनकी सेवा-वैयावृत्य करना और उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान का निरन्तर अभ्यास करना यह उपाध्याय-संलीनता है । एक गुरु की शिष्य परम्परा को कुल कहते हैं और अनेक कुलों के समुदाय को गण कहते है । ऐसे कुल और गण की भक्ति में लीन रहना, उनकी वैयावृत्त्य करना और उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करना कुल-गण-सलीनता है । जब हम आचार्य, उपाध्याय और कुल-गण में अपनी संलीनता रखेंगे, तभी उनको शालीनता और हमारी विनम्रता प्रकट होगी। जव हम अपने इन गुरुजनों को बड़ा मानेंगे, तभी हमारा शिप्यपना सच्चा समझा जावेगा । यदि हम अपने माता-पिता को पूज्य मान कर उनकी सेवा करेंगे तो हम सच्चे पुत्र कहलावेंगे । और जो उनको पूज्य और उपकारी नहीं मानते हैं और कहते हैं कि यदि मां ने नौ मास पेट में रखा है, तो उसका किराया ले लेवे--तो भाई ऐसे कहनेवालों को क्या आप पुत्र कहेंगे ? नहीं कहेंगे।
पूर्वकाल में राजा को राज्य सिंहासन पर प्रजा धूमधाम से राज्याभिषेक करके बैठाती थी और उसे राजा मानती थी तो उनका महत्व था । किन्तु जो बल-पूर्वक दूसरे का राज्य छीनकर स्वयं राज्य सिंहासन पर बैठ जाता है, उसे भी राजा मानना पड़ता है । इसी प्रकार जो परम्परागत संघ के अधिपति .होते चले आते हैं वे तो आचार्य हैं ही । किन्तु जब किसी निमित्त से आचार्यपरम्परा विच्छिन्न हो जाती हैं, तब जो प्रयत्नपूर्वक शासन का उद्धार करते हैं और उसके संरक्षण की बागडोर अपने हाथ में लेते हैं, वे भी आचार्य कहलाते हैं । श्री धर्मदासजी, लवजीऋपि, धर्मसिंहजी और जीवराजजी को किसने आचार्य बनाया ?.वे तो स्वयं उस मिशन के उठाने वाले थे । जब वे लगातार लम्बे समय तक कार्य करते गये और सम्प्रदायें उनमें मिलती गई, तब वे आचार्य कहलाने लगे ।
आज अनेक न प हैं, पार्टियां है, जब इनका प्रारम्भ होता है और वे मजबूत बन जाती हैं तब उनका अध्यक्ष भी निर्वाचित कर दिया जाता है। इसी