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मात्मलक्ष्य की सिद्धि
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तो भावहिंसा के भागी बन ही गये, क्योंकि उन्होने तो जान बूझकर और लोभ के वशीभूत होकर मारे हैं ।
अव देव ने देखा कि आचार्य मे दया का भाव तो लेशमात्र भी नहीं रहा है, तो वह बड़ा विस्मित हुआ । उसे पूर्वजन्म की बातें याद आने लगी। वह विचारने लगा कि कहा तो गुरु को परिणति कितनी निर्मल, अहिंमक और दयामयी थी, कितना अप्ठ ज्ञान था और कितने उच्च विचार थे। आज इनका इतना अधःपतन हो गया कि तुच्छ पुद्गलो के लोभ से सृष्टि के सर्व श्रेष्ठ मानव के भोलं-भोले बालको को मारते हुए इनका हृदय जरा-सा भी विचलित नही हआ। अब क्या करना चाहिए? मैं एक बार और भी प्रयत्न करके देखू कि इनकी आंखों मे लाज भी शेष है, या नहीं ? यदि आखों में लाज होगी, तो फिर भी काम वन जायगा । अन्यथा फिर उनका जैसा भवितव्य होगा, मो उसे कौन रोक सकता है !! यह सोचकर उस देव ने जिधर आचार्य जा रहे थे, उसी ओर एक ग्राम की माया रची और उसमे से सामने आते हुए श्रावक-श्राविकाओ की भीड़ दिखाई। वे सब एक स्वर से बोलते हुए आ रहे थे-घन्य घड़ी आज की है, आज हमारा धन्य भाग है, जो गुरुदेव नगर में पधारे है, यह कहते हुए उन लोगों ने गुरु के चरणा-वन्दन किये और प्रार्थना की कि महाराज, नगर में पधारो और भात-पानी का लाभ दिलाओ । मापादभूति बोले- मुझे इसकी आवश्यकता नही है । कहो भाई, अब भातपानी की क्या आवश्यकता है, क्यों पात्र तो रत्न-सुवर्ण से भरे हुए झोली मे हैं । लोग आग्रह करते हैं और वे इनकार करते है। इतने में सबके साथ वे नगर के भीतर पहुंच गये, तो उनको भात-गानी लेने की अन्य लोगो ने भी प्रार्थना की । और कहा- महाराज, हमारे हाथ फरसाओ और उपदेश देकर हम लोगो को पवित्र करो। लोगो के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर भी जय मापाढाचार्य गोचरी लेने को तैयार नहीं हुए, तब सब ने कहा-पकडो महाराज की झोली और ले जाको महाराज को। फिर देखे कि कैसे नही लते है ? ऐसा कहकर लोगों ने झोली को पकड़ कर जो झटका दिया तो सारे पात्र नीचे गिर गये और आभूपण इधर-उधर बिखर गये । यह देखते ही भाचायं तो लज्जा के मारे पानी-पानी हो गए। विचारने लगे- बड़ा अनर्थ हो गया? सब लोग मुले महात्मा और परम सन्त मानते थे, खमा-खमा करते थे और दया के सागर नाहते थे । अब ये पूछंगे कि ये आभूपण कहा से लाये, ये तो हमारे वानको के हैं और हमारे बालक कहाँ हैं, तो मैं क्या उत्तर दंगा? हे भगवन्, इतना अपमान सोने नहीं देखा जायगा ? हे पृथ्वी