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प्रवचन-सुधा कुछ समय के बाद दूसरे शिप्य ने संथारा किया। गुरु ने उससे भी वही बात कही। पर अनेक वर्ष बीतने पर भी वह नहीं आया। इस प्रकार क्रमशः तीसरा, चौथा और पांचवां शिष्य भी संथारा करके काल करता गया । मगर लौट करके कोई भी गुरु के पास मिलने को नहीं आया । तव आचार्य के मन में विकल्प उठा कि यदि स्वर्गादि होते तो कोई शिप्य तो आ करके मिलता। पर वर्षों तक मेरी आज्ञा में रहने पर और संथारा के समय 'हां भर देने पर भी कोई मेरे पास आज तक नहीं आया है, तो ज्ञात होता है कि कोई न स्वर्ग है और न कोई नरक है। ये तो सब लोगों को प्रलोभन देने और इराने के लिए कल्पित कर लिये गये प्रतीत होते हैं। इस प्रकार उनके हृदय में प्रमाद ने-----शंका ने प्रवेश पा लिया । परन्तु उन्होंने अपनी इस बात को भीतर छिपा करके रखा, बाहिर में किसी से नहीं कहा । किन्तु भीतर-ही भीतर वह शल्य उन्हें चुभती रहती और श्रद्धा दिन पर दिन गिरती जाती थी। एक बार उनका सबसे छोटा शिष्य बीमार पड़ा। वह अन्यन्त बुद्धिमान; प्रतिभाशाली और आचार्य के योग्य उक्त आठों सम्पदाओं से सम्पन्न था। आचार्य ने दिल खोलकर उसे सर्वशास्त्र पढाये थे और उस पर उनका स्नेह भी बहुत था। जव इलाज कराने पर भी वह स्वस्थ नहीं हुआ और उसने अपना अन्तिम समय समीप आया हुआ जाना तो आपाढ़ाचार्य से संसार के लिए प्रार्थना की। उन्होंने भी देखा कि अब यह बच नहीं सकता है, तब उसे सथारा ग्रहण करा दिया 1 और उससे कहा--देख, तू तो मेरा परमप्रिय शिप्य रहा है, तू स्वर्ग से आकर एक बार अवश्य मिलना । औरों के समान तू भी भूल मत जाना। उसने भी कहा - गुरुदेव, मैं अवश्य ही आपसे मिलने के लिए आऊँगा । यथासमय वह भी काल कर गया। पन्द्रह-बीस दिन तक तो गुरु ने उसके आने की प्रतीक्षा की। किंतु जब उसे माया नहीं देखा तो. आचार्य के मन की शंका और भी पुष्ट हो गई कि न कोई स्वर्ग है और न. कोई नरक है। ये सव गपोड़े और कल्पित है । अव उनका चित्त न आवश्यक. क्रियाओं मे लगे और न शिप्यों की संभाल करने मे ही लगे । वे अत्यन्त उद्विग्न रहने लगे । धीरे-धीरे उनका उद्वेग चरम सीमा पर पहुंचा, तो सव शिष्यों को बुला करके कहा- मैंने आज तक तुम लोगों को उपदेश दिया
और तुम लोगो ने प्रेम से सुना और तदनुकूल आचरण भी किया है। परन्तु अब मैं कहता हूं कि तुम लोग अपने-अपने ठिकाने चले जाओ, इस साधुपने. मे सिवाय व्यर्थ कष्ट उठाने के और कुछ भी नहीं है। न कोई स्वर्ग है और न कोई नरक है। ये सब कपोल-कल्पित और मनघडन्त बातें हैं। आचार्य