________________
प्रवचन-सुधा
अपने विचार उस अभीप्ट पद के पाने का रखना चाहिये और उस पर शक्ति भर दृढ़ रहना चाहिये ।
जो व्यक्ति अपने विचारों पर दृढ़ नही रहता है और बे-पंदी के लोटे के समान या फुटवाल की गेद के समान जिसके विचार इधर-उधर न्नुढ़कतेडोलते रहते हैं, लोग उन्हें शेखचिल्ली कहते हैं। जैसे मन्दिर के ऊपर लगी हई ध्वजा हवा के जोर से कभी इधर और कभी उधर उड़ती रहती है, वैसे ही अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति के विचार भी सदा इधर-उधर घूमते रहते है ऐसा व्यक्ति न लौकिक काम ही सिद्ध कर पाता है और न पारलौकिक कार्य ही सिद्ध कर पाता है। इसलिए मनुष्य को सदा अपने विचारों पर और अपने ध्येय पर सदा दृढ रहना चाहिये । अनेक मानव कार्य करते हुए दीर्घसूत्री हो जाते है, और सोचा करते है कि यदि यह काम करेगे तो कहीं ऐसा न हो जाय, वैसा न हो जाय ? पर भाई संस्कृत की एक उक्ति हैं कि___दीर्घसूत्री विनश्यति' अर्थात् जो विचार किया करते हैं कि हम आगे ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे, परन्तु करते-घरते कुछ भी नही है, वे कभी भी कोई कार्य सम्पन्न नही कर पाते हैं और अन्त मे विनाश को प्राप्त होते हैं । इसलिये मनुष्य को अपना ध्येय निश्चय करके उस पर दृढ़ता पूर्वक चलते रहना चाहिए, तभी मनुष्य अपने लक्ष्य पर पहुंच सकता है और सफलता प्राप्त कर सकता है।
बन्धुओ, देखो जो मनुष्य अपने पुत्र के उत्पन्न होते ही विचारता है कि मुझं इसको ऐसा सुयोग्य बनाना है कि दुनिया देखती रह जाय और इसी भावना के साथ वह उसका भली भांति से लालन-पालन करता है, सुयोग्य शिक्षाएं देता है और प्रतिदिन उत्तम संस्कारों से संस्कारित करता है, तो वह एक दिन उसकी भावना के अनुरूप बन ही जाता है। हां, यदि कोई कदाचित् अपने इस प्रयत्न में सफलता न पा सके, तो लोग यही कहेंगे कि उस व्यक्ति ने तो इसे सुयोग्य बनाने का बहुत प्रयत्न किया, मगर इसका भाग्य ही खोटा था, जो यथेप्ट सफलता नहीं मिले, तो मनुष्य का उसमें कोई दोष नहीं हैं। इसलिए नीतिकारों ने कहा है कि
'यले कृते यदि न सिद्ध यति कोऽत्र दोषः' अर्थात् प्रयत्न करते हुये भी यदि मनुष्य का कार्य सिद्ध नहीं होता ह तो उसमें फिर उसका कोई दोष नहीं है। यह तो उस पूर्वोपाजित दुर्देव का ही फल है, जो कि उसके प्रयत्न करते रहने पर भी उसे सफलता नहीं मिली है । परन्तु मनुप्य ही तो अपने इस दुर्दैव या सुदैव का निर्माण करता है, इसलिए