________________
धनतेरस का धर्मोपदेश
१६३
वग्धी के दो घोड़ों में से एक घोड़ा कुपात्र था | उसे गधे की बात अच्छी लगी और वह चलते हुये एक स्थान पर अड़ गया । सईस ने पहिले तो दोचार चाबुक लगाये । पर जब चलता नहीं देखा तो उसने पिस्तौल से गोली मार दी। वह धोड़ा मर गया । अव एक घोड़े से वग्बी कैसे चले । अतः समीप में ही चरते हुये उस गधे को उसे बग्घी में जोत दिया और हंटर मार कर दौड़ाता हुआ बग्घी को घर पर ले आया । अब वह प्रतिदिन बग्घी में जोता जाने लगा
और हंटरों की मार खाने लगा । तव एक दिन उसके साथ जुतने वाले घोड़े ने कहा
कुट्टकर्ण दुराचारी, मम मातुलघातकः ।
कुटिलं किं न कर्त्तव्यं, सुखं बने चरन्ति ते ।। अरे विना पूछ-कान के गधे, तूने कुटिलता का पाठ पढ़ा कर मेरे मामा को मरवा दिया । अव तू कुटिलता क्यों नहीं करता है ? तब गधा वोला
कौटिल्यं तत्र कर्तव्यं, यत्र धर्मो प्रवर्तते ।
रयवाहो महापापी, कण्ठच्छेदं करिष्यति ॥ भाई, कुटिलता वहां करना चाहिए, जहां पर धर्म प्रवर्तता हो । परन्तु यह रथवाहक तो महापापी है । यदि इसके आगे मैं कुटिलता करूंगा तो यह अभी मेरा गला ही उड़ा देगा।
इस दृष्टान्त के कहने का अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य अनुशासन में नहीं रह कर स्वच्छन्द-विहारी अनर्गलप्रलापी हो जाते है, वे उस गधे के समान दूसरो को भी धोखा देते हैं और उन्हें भी दू.खों का भागी बना देते हैं । जो भगवान का अनुशासन नहीं मानना चाहते और उत्सूत्र प्ररुपणा करके स्वयं पाप के गर्त में पड़ते है, वे दूसरों को भी अपने साथ दुर्गति के गर्त में ले जाते हैं । अतः सर्वज्ञ, वीतराग भगवान के वचनों में भी अवगुण निकालने वाले, स्वछन्द विचारवाले और उत्सूत्र-प्ररूपणा करने वाले मनुष्यों के बहकाने में नहीं भाना चाहिए । किन्तु परभव में सुख के इच्छुक भव्यजनों को भगवद्-वचनों पर पूर्ण श्रद्धा और भक्ति रखनी चाहिए। उन्हें सदा यही बात हृदय में रखनी चाहिए कि 'नान्यथावादिनो जिना:' अर्थात् जिन भगवात अत्ययावादी नहीं होते है । उन्होंने जो और जैसा वस्तु का स्वरूप कहा है, वही सत्य है और हमें उसी का श्रद्धान करना चाहिए । वि० स० २०२७ कार्तिक कृष्णा १३
(धनतेरस )
जोधपुर