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प्रवचन-सुधा
रक्षा की जाय, भले ही हमें कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े। परन्तु मेरे निमित्त से किसी भी प्राणी को कोई कष्ट न पहुंचे । भगवान ने कहा है कि
जे भिक्खू सोच्चा नवा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विहन्नेजा।
अर्थात्-इन क्षुधा, तृपा आदि परीपहों को जानकर अभ्यास के द्वारा परिचित होकर भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ साधु उनसे स्पृष्ट होने पर धर्म-मार्ग से विचलित नही होता है। जिन महापुरुपों से सर्वप्रकार के परीपहों को, कष्टों को, सहन किया है, वे संसार से तिर गये।
तीसरे अध्ययन का नाम 'चतुरङ्गीय' है। इसमें बताया गया है कि संसार की नाना योनियों में परिभ्रमण करते हुए जीव को ये चार पद मिलना बहुत कठिन हैं
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। अर्थात् इस संसार में प्राणियों के लिए ये चार अंग पाना परम दुर्लभ है—मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम प्रकट करना ।
कितने ही प्राणियों को मनुष्य जन्म प्राप्त भी हो जाता है तो धर्म का सुनना नहीं मिलता । यदि धर्म सुनने का अवसर भी मिल जाता है तो उस पर श्रद्धा नहीं करता । और यदि श्रद्धा भी करले तो तदनुकूल आचरण रूप संयम को नहीं धारण करता है । भगवान ने कहा
माणुसत्तम्मि आयाओ जो धम्म सोच्च सरहे ।
तवस्सी बीरियं लद्ध, संवुडे निद्धणे रयं ।। अर्थात् -मप्यत्व को प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है और वीर्य शक्ति को प्रकट करता है, वह तपस्वी वार्मरज को धो डालता है। चौथे अध्ययन का नाम 'असंस्कृत' है । भगवान ने कहा है कि
असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स ह त्यि ताणं ।
एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कण विहिंसा अजया गहिन्ति ।। हे भव्यो, यह जीवन असंस्कृत है अर्थात् बड़ा चंचल है-सांधा नहीं जा सकता, इसलिए प्रमाद मत करो । बुढ़ापा आने पर कोई शरण नहीं होता।