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सर्वज्ञवचनो पर आस्था
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सभालो अपने ओघा-पात्र । श्रावक लोग विचारने लगे- 'अहो कम्मे' कर्मो की लीला पर आश्चर्य है ? हजारो को तारनेवाला यह जहाज डूब रहा है, साधु अपने मार्ग से गिर रहा है। तब लोगो ने हाथ जोड कर बडी विनय के साथ कहा- महाराज, यह आप क्या कह रहे हैं । साधु बोले में ठीक कह रहा हू । में अभी तक धर्म का घोटक था--अगला ठिकाना नहीं था। अब कुछ सुध बुध आई है, इसलिए इस वाने को छोडकर जारहा हू । लोगो ने सोचाये महात्मा तो पहुचे हुए हैं, शास्त्रो के ज्ञाता हैं। परन्तु ज्ञात होता है कि आज अग्राह्य-अकल्प्य-आहार-पानी इनके खाने-पीने मे आगया है जिससे इनकी बुद्धि आज चल-विचल हो रही हे ठिकाने नहीं है। क्योकि कहावत है कि-- .
जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन ।
जैसा पिये पानी, वैसी बोले वानी ।। यह सोचकर उन लोगो मे से एक मुखिया उठकर वैद्यराज जी के पास गया और लोगो से कह गया कि इनको बाहिर कही जाने मत देना । यदि ये चले गये, तो धर्म का बडा भारी मकान ढह जावेगा। ____ मुखियाजी वैद्यराजजी को लेकर आये। उन्होने साबुजी की नाडी और वोले- नाडी तो ठीक चल रही है शरीर मे तो कोई रोग नहीं है । तब वहा उपस्थित कुछ लोगो ने कहा-इनका रोग हम जानते हैं। यह आपको ज्ञात नही हो सकता । आप तो इन्हे ऐसी दवा दीजिए कि वमन-विरेचन के द्वारा सारा खाया-पिया निकल जावे, पेट मे उसका जरासा अश भी न रहे । वद्यराजजी ने भी सारी स्थिति समझकर एक विरेचक चूर्ण बनाकर दिया आर महात्माजी ने भी उसे ले लिया। थोड़ी देर के बाद ही उनके पेट मे खल-वली मची और तीन-चार वार बडी नीति के द्वारा उनका पेट साफ हो गया । उनके वस्त्र मल से लिप्त हो गये। श्रावको ने उनका शरीर साफ किया, दूसरे वस्त्र पहिनाये । उनका शरीर एकदम शिथिल हो गया था, अत उन्हे पाटे पर सुला दिया ।
इधर तो महात्माजी का यह हाल हुआ और उधर राजा जगल से महात्माजी का पानी पीकर जव नगर को आ रहा था, तब उसके मन मे ये विचार उठने लगे, कि मैं प्रजा का रक्षक होकर भी आज तक उनका मारक
और भक्षक बना रहा । मैंने कितने निरपराधी लोगो को जेल में डाला है, कितनो का धन नूटा है और न जाने कितनी बहिन-बेटियो की इज्जत-आवरू को नष्ट किया है। पता नही, मुझे मेरे इन दुराचारो का कहाँ जा करक मा