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________________ १०२ प्रवचन-सुधा खाते रहते है । परन्तु आपने कभी यह प्रयत्न नही किया कि हम अपनी समाज के बालको में चेतना लावे, जागति उत्पन्न करें और उन्हें बलवान बनावें। उन्हे मापने कभी यह पाट पढाया ही नहीं कि डट कर शैतानों का मामना कर सकें। कभी क्षणिक जोश आता है, मगर वह दूध के उफान के समान जरा सी देर मे ठडा हो जाता है । आप लोगो के यहां पर हजारो घर होते हुए भी कोई अखाडा या व्यायामशाला तक नही है। यदि आपये लड़ो मनाडे के पहलवान होते, तो क्या किमी की मजाल थी जो वह आपो लडके को हार लगा देता । यही पर दखो-आर्यसमाज के लड़को को कोई हार भी लगाने का साहस नहीं करता है। कभी अवमर आने पर उनके दन-पाच नौजवान चले जाते हैं तो अनेको को पछाड कर आते है। परन्तु आपके बच्चे तो मार खाकर ही आते है और आप लोगो से अपना दुख कहते हैं । यदि आपके भी अखाड़े होते और यहा जाकर आपके लउके व्यायाम करते तो बलवान होते और उनके मी हौसले दूसरो के साथ मुकाबिला करने होते तो किमी की हिम्मत नहीं यो-जो उन्हें कोई छेड सकता । परन्तु इस ओर आप लोगो का कुछ भी ध्यान नहीं है । जब ये बालक इस उम्र मे बलवान और हिम्मतदार नही बनेंगे तो भविष्य म उनसे धर्म और समाज पर सट आने के समय रक्षा की क्या आशा की जा सकती है । जमे आए वमजार है, किसी का मुकाविला नही कर सकते, वैसा ही आप अपनी सन्तान को बना रहे हैं। जब आपको लडको के हो बलवान बनने की चिन्ता नहीं है तब लडनिया की तो बात ही वहुत दूर है । इनमे तो आपने कायरता ही प्रारम्भ से भर दी है कि ये तो चूडिया पहिनने वाली हैं। जब जन्म से ही आपन वायरता की जन्म धुटी पिलाई है तब ये बचारी आततायी का क्या सामना कर सकती हैं और कैसे अपने शील और धम का बचा सकती हैं । जव आप लोगो में ही साहस नही है और कायर बने हुए हैं, तब सन्तान के बलवान् और साहसी बनने की आशा ही कसे की जा सकती है। आप लोगो मे यह कायरता आई क्यो? क्या कभी आपने इसका भी विचार किया है ? भाई, बात यह है कि आप लोगो की शक्ति पडौसियो से लडने और बाल-बच्चो के साथ चिडचिड करन मे ही नष्ट हो जाती है । परन्तु जो पुरुप सहनशील होते हैं तो उनमे रोग बढते ही नहीं है और अवसर आने पर वे कुछ करके भी दिखा देते हैं । यह शक्ति मनुष्य के भीतर होना यावयश्क है। प्रथम तो वैश्य वर्ग यो ही भीरु है। फिर दूसरे हमे पाठ पढानेवाले गुम भी ऐसे मिले है कि हर बात मे पाप का भय बताकर उन्हे और भी कायर बना देते हैं। अरे, क्या क्रोध करने मे और अनीति का धन ग्रहण करने में
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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