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प्रवचन-सुधा
आप लोगों को ज्ञात होगा कि जब लीवड़ी में जैन कान्फ्रेन्स का अधि वेशन हुआ और सेठ चांदमलजी अध्यक्ष बनकर के वहां गये, तब वहाँ के नरेश ने उनका स्वागत-सत्कार किया। इससे वहां जैनधर्म का महत्व बढ़ा । जिन्हें जैनधर्म पर और भगवान की वाणी पर श्रद्धा और भक्ति होती है, वे वडी भक्ति और विनय के साथ आगमसूत्रों का अध्ययन, श्रवण और मनन करते हैं । पहिले बड़े विधान के साथ भगवती सूत्र का वाचन होता था । इसके वाचन के प्रारम्भ में, मध्य में और अन्त में सब मिलाकर १२३ आयविल करने पड़ते हैं। जप-तप भी चलता है और महापुरुषों का आशीर्वाद भी रहता है । तव सिद्धि और चमत्कार दृष्टिगोचर होते हैं । परन्तु आज तो इन बातो की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है । और हर कोई कहता है कि हम भगवती या अन्य सूत्र बाँचते हैं।
अर्थज्ञान शून्यता से अनर्थ एक स्थान पर एक सतीजी मोक्षमार्ग बांच रही थी। उसमें पाठ आया'कयरे मग्गे अक्खाए' इसका उन्होंने अर्थ किया कि 'कए भुजते कहतां केर, मूंग आखा नही खाना' । यह अर्थ सुनकर एक श्रावक ने कहा-आप यह कैसा अर्थ कर रही हैं ? इसका अर्थ तो यह है कि 'मोक्ष का मार्ग कौन सा है ? भाई, अर्थ तो यह था और उन्होंने अर्थ कर दिया कि आखे कर और मूग नहीं खाना । इस प्रकार से यदि कोई शब्द वांच भी लेवे और गुरु-मुख से उसके अर्थ की वाचना नहीं लेवे तो ऐसे लोग अर्थ का अनर्थ कर देते हैं । परन्तु जिन्होंने गुरु-मुख से अर्थ की वाचना ली है, और जिनमें साधुपना है, वे इस बात को भली-भांति जानते हैं कि शास्त्र के किस वचन का क्या अर्थ कहना अपेक्षित है। वक्ता का लक्षण कहते हुये शास्त्रकारों ने कहा है कि 'प्राप्त समस्तशास्त्रहृदयः' अर्थात् वक्ता को समस्त शास्त्रों के हृदय कारहस्य का बोध होना चाहिए । ऐसा कुशल वक्ता क्षेत्र-काल के अनुसार कथन का संक्षेप और विस्तार से व्याख्यान करता है। इसलिए एक नीतिकार कहते हैं
पोथी तीन प्रकार को, छोटी बड़ी मझोल ।
जहां जैसा अवसर दिखे, तहां तैसी को खोल ॥ भाई, वक्तापने का यह चातुर्य गुरु-मुख से सुने विना और भापा की शुद्धि का ज्ञान हुए बिना नही प्राप्त होता। वचन-शुद्धि के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अकारण हंसे नहीं। साधु के लिए और श्रावक के लिए हंसने का निषेध किया गया है, फिर अनवसर