________________
५६ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत- .
स्तवन हुं। पारसनाथ जपत है जो जन, ॥ ए देशी ॥ पास जिनंद रटत है जो जन, पूर टले नव सागर फेरे ॥ पाण् टेक ॥
तीन जवनमें तिलक विराजे अष्टादश दोष सब मेरे॥ पा ॥१॥ अवर देव वामा वस कीने, नीने मदन मदंध घनेरे ॥ पा ॥२॥ शांतिरूप तुम दरसन कीने, नाम लेत सब बंधन फेरे॥ पाण ॥३॥ गिरि समेत प्रनु अटल बिराजे, आतम आनंद रसको लेरे ॥ पा॥४॥
स्तवन सातमुं।
॥ राग ठुमरी ॥ प्रनु पास निरंजन जयकारी ॥ टेक ॥ बालपने प्रजु अदभुत ज्ञानी, राख्यो नाग लकर फारी ॥ प्र॥१॥ दे नवकार फाणी दर कीनो, एक दया दिलमें धारी ॥ प्र ॥२॥ वाणीरस अमृत वरसायो, नविजनके कारज सारी ॥ प्र॥३॥ समेतशिखर प्रजु मुक्ति विराजे, निज आतमगुण ले लारी ॥ प्र॥४॥