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२६ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृतअमृत चाखी, स्यादवाद सुखदारी । जहर पान अब कौन करत है, पुरनय पंथ नसाइ सम्॥चाणामा जब लग पूरण तत्त्व न जाएयो, तब लग कुगुरु जुलारी । सप्तनंगी गर्जित तुम वाणी, नव्यजीव सुखदाइ स ॥ चाणाया नाम रसायण सहु जग नाणे, मर्म न जाने कांशी। जिन वाणी रस कनक करण को, मिथ्या लोह गमा सण ॥ चा० ॥६।। चंद किरण जस उज्वल तेरो, निर्मल जोत सवारी। जिन सेव्यो निज आतम रूपी, अवर न कोश सहा स० ॥ चा ॥७॥
॥श्री सुविधिनाथ जिन स्तवन ॥
सुविधि जिन बंदना, पाप निकंदना, जगत आनंदना, मुक्ति दाता। करम दल खेमना, मदन विहंमना, धरम धुर मंमना, जगत त्राता॥ अवर सहु वासना, बोर मनासना, तेरी उपासना, रंग राता । करो मुफ पालना, मान मद गालना, जगत उजालना, देह साता ॥ सु० ॥१॥ विविध किरिया करी, मूढता मन धरी एक पके बरी, जगत नूट्यो । मान मद मन धरी, सुमति सब परहरी, जैन मुनि नेष धर मूढ फूल्यो। एही एकंतता, अति ही पुरदंतता, नास कर संतता, दुःख फूटयो।