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२०८ श्रीयशाविजयोपाध्याय कृतप्रीत। तेल बिंद जिम विस्तरेजी, जलमांहि नली रीत ॥ सोनागी जिनशं लाग्यो अविहरू रंग ॥ ॥१॥ सज्जनशुं जे प्रीतमीजी, गनी ते न रखाय । परिमल कस्तूरीतणोजी, महिमांहि महकाय ॥ सो० ॥ २॥ अंगुलीये नवि मेरु ढंकाये, बावमीये रवि तेज । अंजलीमां जिम गंग न साये, मुज मन तिम प्रजु हेज॥सो ॥ ३॥ हुओ बीपे नही अंधर अरुण जिम, खातां पान सुरंग। पिवत नरनर प्रनु गुण प्याले, तिम मुज प्रेम अजंग ॥ सो ॥४॥ ढांकी इनु परालगुंजी, न रहे लही विस्तार । वाचक जश कहे प्रजु गुणेजी, तिम मुज प्रेम प्रकार ॥ ॥ सो० ॥५॥
श्रीपदमप्रन जिन स्तवन । ( सहज सलुणा हो साधुजी, ए देशी ) पदमप्रनु जिन जई अलगा रह्या, जिहांश्री नावे लेखोजी। कागलने मसि तिहां न वि संपजे, न चले वाट विशेखोजी ॥ सुगुण सनेहारे कदिये न
१ कोई वखत झांखो न पड़े एवो । २ पृथिवीमां । ३ सूर्यनुं तेज। ४ राता थयेला होठ । ५ परालथी ढांकेली शेलडी।