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__ श्रीमद्विजययानंदसूरि कृतसेवक जगमें जस लहीये ॥ रिखव०॥ ए॥ सात वार तुम चरणे आयो, दायक शरण जगत कहीये। अब धरणे बेशी, नाथसे मन वंडित सब कुछ लहीये ॥ रिखव० ॥१०॥ अवगुण मानी परिहरस्यो तो, आदि गुणी अगको कहीये । जो गुणीजन तारे तो, तेरी अधिकता क्या कहीये ॥ रिखव० ॥११॥ आतम घटमें खोज प्यारे, बाह्य जटकते ना रहीये । तुम अजय अविनाशी, धार निज रूप आनंद घनरस लहीये ॥ रिखवण ॥१॥
आतमनंदी प्रथम जिनेश्वर, तेरे चरण शरण रहीये । सिकाचल राजा, सरे सब काज आनंद रस पी रहीये ॥ रिखव ॥ १३ ॥
स्तवन त्रीजुं।
॥ राग माढ ॥ ___मनरी बातां दाखाजी म्हारा राज हो रिखवजी
थाने ॥ मनरी० ॥ आंकणी ॥ कुमतिना नरमाया जी म्हारा राजरे कांश, व्यवहारि कुलमें, काल अनंत गमायाजी म्हारा राज हो रिखवजी०॥१॥ कर्म विवर कुछ पायाजी, म्हारा राजरे कां । मनुष्य जनमें, आरज देशे आयाजी। म्हारा राज
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