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१४४ श्रीमद्वीरविजयोपाध्याय कृत-- जिणंदकी ॥ चि० ॥ आंकणी ॥ चेतन ममता सबही बोमी, ए प्रनु सेवो एकमति | लोकातित स्वरूप ते जेहनूं, लेई वरो पंचमी गति ॥चि०॥१॥ एक एक प्रदेशें अनंती, गुण संपतनी आवली। सुरगुरु कहेतां पार न पावे, एक अनेक मुखे करी॥ चि० ॥ ५॥ नव थकी अलगा बो प्रतु तुमही, नविजन ताहरा नामथी। पार नवोदधिनो ते पामे, ए अचरिज मन अती ॥ चि ॥३॥ तुम प्रजु तारक जग जयवंतो, नहीं जाएयो में उरमती। मन वच काया थीर करीने, नहीं सेव्यो में एक रती ॥ चि॥४॥ अवसर पामीन करुं खामी, सोर धरुं प्रजुनी चाकरी । राधणपुरमंमण दुख खंगण, सेवी वरो शिवसुंदरी ।। चि ॥ ५ ॥ वारवार विनवू प्रनु तुमथी, जो अवधारो माहरी। श्रातम आनंद प्रजुजी दीजो, वीरविजयने मया करी ॥ चि० ॥ ६॥
श्रीसिहाचलजी, स्तवन । ॥मनरी बातां दाखाजी महारा राज, ए देशी॥
प्रीतमजी सुणो दीलरी बात हमारी जी मारा राज ॥ आंकणी ॥ विमल गिरिंदकुं बेटो