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१३८ श्रीमद्वीरविजयोपाध्याय कृतमें खेलताजी, तुम हम नवले वेस। त्रिजुवन पदवी तुमे लहीजी, हमें संसारिके वेस ॥ के० ॥१॥ अवसर लही अब विनवूजी, तुम हो दीनदयाल । जे पदवी तुमने लहीजी, ते आपो महाराज ॥ के ॥२॥ दायक दान देतां थकांजी, नवी करे ढील लगार। इडित हरिचंदन दीएजी, तो तुमरी क्या बात ॥ के ॥३॥ समरथ नहीं ते दानमें जी, हरि हरादिक देव । जोग्य जाण कर जाची. योजी, अब मिलीयो प्रनु मेल ॥ के ॥४॥सुणी अरजी सेवक तणीजी, चित्तमें चतुर सुजाण । आतम लक्ष्मी दिजीएजी, वीर विजयकुं दान ॥ के० ॥ ५॥ श्रीबुजी पनजिन स्तवन ।
|| राग काफी ॥ जेट्यो अर्बुदराजरे आज सफल घमी नई॥ जे० ॥ आंकणी ॥ नानिनंदनजीके दरस सरससें, पूर गई मिथ्यावास । अनुजव ज्योत नई निज घटमें, त्रुटी जवकी पासरे ॥ आ० ॥ १॥ दीन उकार करण तुम सरिखो, नही दीगेश्ण संसार। प्रवहण प्रेरक जिम निरजामक, बांहे ग्रही तिम