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प्रकाशनो सदुपयोग करी शकती नथी । गीर्वाण र भाषाना समर्थ विद्वान् होवा छतांजेमणे लोकोपकार करवानी धर्मबुद्धिने विवशथइ प्रांतिक-देशभाषामां नवू काव्य साहित्य उमेरतां लेशमात्र संकोच न अनुभव्यो, जेमणे एक बालकथी लइ एक वृद्धने पोतानी वाणीनो लाभ आपवा स्तवनोअने पद्योनी रचनाथी लइ न्यायना कठिनमां कठिन गणाता ग्रंथो साहित्य भंडारमा आमेज कर्या, ते श्रीमान् न्यायविशारद न्यायाचार्य महामहोपाध्याय श्रीयशोविजय उपाध्यायनुं स्तवन अमे अमारी पामर लेखिनीथी करी शकता नथी, मात्र तेमना रचेलां थोडांक स्तवनोज आ ग्रंथमां प्रकट करी समाजना करकमलमां अपीए छीए।जैन संघ पुनः श्रीयशोविजय जेवा शास्त्राभ्यासीओ, कष्टसहिष्णुओ, शासनप्रभावको, लोकोपकारको, निरभिमानिओ, संयमशीलो अने मनुष्यना रूपमां देवो क्यारे उत्पन्न करशे ? एम थशे त्यारेज शासननी प्रभावनानो चंद्रमा सोले कलाए खीलशे । जगत् ए प्रकाशमां स्नान करी कृतार्थ थशे । किं पहुना ?
विद्यमान श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज श्रीवीरविजयजी अने स्वर्गस्थ प्रातःस्मरणीय देवोपम
श्रीमान् देवविजयजीनीप्रासादिक रसभरित वाणी(नासौभाग्यथी पण वाचकोने वंचित नथी राख्या।ए