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द्वादश भावना।
॥ अथ पंचमी अन्यत्व नावना ॥
| राग भैरवी ॥ ब्रह्मज्ञान रस रंगी रे चेतन ॥ ब्रह्म ॥ आंचली॥तन धन स्वजन सहायक जे ते, इनसे अन्य निरंगी रे । जीवसे एही विलक्षण दीसे, अन्यपणा दृग संगी रे ॥ ब्रह्म ॥१॥ जो नवी देह बंधु धन जनसे, आतम निन्नहि मंगी रे॥तिनकों सोग शंकुसे पीमा, व्यापे नहीं उख नंगी रे ॥ ब्रह्म ॥२॥ जैसे कुधातुसे कंचन बिगरयो, दीसे स्वरूप विरंगी रे। गये कुधातु के निजगुण सोहे, चमके निजगुन चंगी रे ॥ ब्रह्म ॥ ३ ॥ करम कुधातुसें चेतन बिगर्यो, मान सबहि एकंगीरे । सम्यग दरसन चरण तापसे, दाहे करम सरंगी रे ॥ ब्रह्म ॥४॥ आतम निन्न सदा जमतासें, सत चिद रूप धरंगी रे। आनंद ब्रह्म सुहंकर सोहे, अजर अमर अनंगी रे ॥ ब्रह्म ॥५॥
अथ बछी अशुचि नावना।
॥ राग सिंध काफी ॥ तनु शुची नहीं होवे काहेकुं नरम जुला
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