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फूलोंका गुच्छा। सुन्दर कुणाल और भी सुन्दर दिखने लगा। उसके शरीरमें नवयौवनने प्रकट होकर मानो मणि-कांचनका संयोग कर दिया।
राजकुमारको युवराजपद मिल चुका था। राजधानीके समीप 'सुशय' नामका एक प्रसिद्ध विहार था। एक दिन वहाँके प्रधान स्थविरने युवराजको एकान्तमें बुलाकर कहा-"वत्स, तुम्हारे ये सुन्दर नेत्र आगे नष्ट होजानेवाले हैं; इन्हें स्थिर मत समझना। नेत्र बहुत ही चंचल होते हैं। खबरदार ! कहीं इनकी चंचलताके वशीभूत न हो जाना--इनमें आस्था रखना अच्छा नहीं । अनास्था--विरागता ही सुखका कारण है।"
.वसन्त आगया है। मलय-पवन घर घरमें जाकर उसके आगमनकी सूचना दे रहा है। वृक्ष लता पुष्प आदि सब ही आनन्दमन दिखने लगे हैं। जहाँ तहाँ उत्सवोंकी धूम है। वृक्ष मौर गये, फूल खिल उठे और कोयलें पंचम स्वरसे गाने लगीं।
आज वसन्तका उत्सव है। सारा नगर इस उत्सव में मानो उन्मत्त हो रहा है। उद्यानमें वसन्तोत्सवका नाटक खेला गया। प्रधान नायकका पार्ट कुणालने लिया। उसके नाट्यकौशलको देखकर दर्शकगण चित्रलिखितसे हो रहे ।
उत्सव हो चुकनेपर मुग्ध नरनारी अपने अपने घरको लौट आये, रङ्गालयमें । यवनिका पड़ गई, उद्यानके दीपक टिमटिमाने लगे।
राजान्तःपुरकी जितनी स्त्रियाँ थी वे सब ही मुग्ध हो रही थीं। उनमेसे कोई तो उत्सवकी मधुरिमा पर मुग्ध थीं, कोई नाट्यकौशल पर और कोई पात्रोंके कण्ठमाधुर्य पर; किन्तु एक किसी और ही वस्तु पर मुग्ध थी और वह था कुणालका सुन्दर मुख । यह मुखमुग्धा युवती महाराज अशोककी दूसरी महाराणी तिष्यरक्षा थी!
सब लोग अपने अपने घर आ गये; परन्तु मुग्धा नहीं आई। वह अपने शरीरको वसन्तकी हिल्लोलोंमें डूबता उतराता हुआ छोड़कर-फूलोंकी सुगन्धि और चन्द्रमाकी चाँदनीमें पागल होकर राजमहलके बाहर खड़ी हो रही।
कुणाल घर आ रहा था । राजमहिषी रास्ता रोककर खड़ी हो गई । कुणाल • अपनी विमाताके आवेशपूर्ण नेत्रोंकी ओर देखकर काँप गया।
वह आँखें नीची करके खड़ा रहा-ऊपरको सिर नहीं उठा सका। इस मूक अभिनयका पर्दा उठते न देखकर अन्तमें तिष्यरक्षा मन मार कर अपने कमरे में चली गई।