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चपला।
'पत्रोंके साथ और भी दो पत्र आये थे। उन्हें महाराजने अन्तःपुरमें पहुँचा दिया। इनमें एक तो माता दत्तदेवीके नामका था और दूसरा युवराज्ञी ध्रुवदेवीके नामका । युवराजने ध्रुवदेवीके पत्र में यह भी लिखा था कि "तुम शायद समझती होगी कि मैं बड़ी ही रूपवती हूँ। परन्तु मुझे विश्वास है कि थानेश्वरसे मैं जिस चतुर्दशवर्षीया कुमारीको नदीसे उद्धार करके लाया हूँ उसे देखकर तुम्हारी आत्मप्रशंसा अवश्य ही कुछ कम हो जायगी।"
५ चपलाकी बात। क्षत्रप राजा रुद्रसेनने युद्ध किये बिना ही सन्धि करनेकी इच्छा प्रकट की; परन्तु इसके लिए युवराजको अपने पिताकी अनुमतिकी आवश्यकता हुई और इसलिए जबतक पुष्पपुरसे कोई उत्तर नहीं आया, तबतक उन्हें अपनी सेनासहित भरुकच्छ या भडोचमें छावनी डालकर पड़े रहना पड़ा। जिस समय युवराजने चपलाका उद्धार किया था, तबसे अबतक तीन महीने हो गये थे । इस बीचमें युवराजकी चपलाके साथ कितनी घनिष्टता बढ़ गई थी, इसका थोड़ासा परिचय देना आवश्यक है।
चपलाको चित्रविद्या सिखलानेके लिए एक यवनी नियत कर दी गई थी। चपलाको पहलेसे ही इस विषयका शौक था-वह जो कुछ देखती थी उसीका चित्र बनानेका प्रयत्न करती थी। इसके सिवा उसने पहले इस विषयकी थोड़ी बहुत शिक्षा भी पाई थी। इसीलिए युवराजने उसके लिए चित्रशिक्षाकी व्यवस्था करना उचित समझा।
एक दिन चपला कोई चित्र बना रही थी-इतने में युवराज चन्द्रगुप्तने जाकर पूछा-"चपला आज क्या बना रही हो ?" चपलाने जल्दीसे चित्रको अपने अंचलके नीचे छुपा लिया और कहा-“मैं आपको कभी न बतलाऊँगी ?" यवनीने हँसकर कहा-"आज यह एक नाक बना रही है; कहती है कि पहले नाक बनानेका खूब अभ्यास कर लूँगी और फिर आपकी एक तसबीर खीचूँगी ।" चपला हँसने लगीं । युवराजने मुसकराते हुए कहा-"हमारे नाकने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो तुम इस तरहसे उसे बना-बनाकर मिटाती हो ? " चपलाने यवनीका हाथ दबाकर कहा-"परन्तु तुम वह बात मत कह देना!" युवराजने पूछा-"वह बात क्या है ?" चपलाके चार छह बार 'ना ना' कहनेपर भी यवनीने कह दिया--"चपला कहती थी कि आपका नाक यदि बिगड़ जायगा तो