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फूलोंका गुच्छा ।
था, फिर खोज करे तो कब ? रहरहकर - बीचबीचमें उसका मन अपनी माताके शोकसे कातर हो उठता था; परन्तु वह क्या करे - निरुपाय था । वह सोचता था कि यदि कोई दिन ऐसा आवे कि दूसरेकी दासवृत्ति न करना पड़े तो अवश्य भैयाकी खोज करके अपनी माका दुःखमोचन कर सकूँगा नहीं तो इस जन्म में तो कुछ आशा नहीं ।
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कमलाप्रसादका मालिक कमलाप्रसाद पर अंतःकरणसे स्नेह करता था । एक बड़े घरका लड़का आपत्ति में पड़कर नौकरी करने आया है ऐसा सोच करके उसके मनमें सहानुभूति भर आती थी और वह सब तरह से कमलाप्रसादकी भलाईकी चेष्टा किया करता था। मौके मौकेपर कमलाप्रसाद जो दूसरा काम करता था उसके बदले में वह उसे अलहिदा मेहनताना देता था । इसके सिवा मालि कके घरपर जो उत्सवादि होते थे उनमें भी दूसरे नौकरोंकी अपेक्षा कमलाप्र-सादको अधिक पारितोषिक मिल जाता था । इसतरह कुछ ऊपरी आमदनी हो जानेके कारण वह अपनी मा, बहिनके खाने पीनेका खर्च निकाल करके भी थोड़ा थोड़ा रुपया एकत्र करने लगा ।
. कमलाप्रसादने हिसाब लगाकर देखा कि एक हजार रुपयोंमें उसकी रहकी हुई जमीन और मकानका उद्धार हो सकता है । ऐसा होनेपर फिर उसे नौकरी करने की आवश्यकता न रहेगी- अपनी जमीनकी फसलकी आमदनी से ही उसकी गुजर भली भाँति होने लगेगी और उस समय निश्चिन्त होकर वह अपने भाईका पता भी लगा सकेगा । बस, यदि वह अपनी जमीन, घर और भाईका उद्धार कर सका, तो फिर और क्या चाहिए ? उसकी सारी अभिलाषायें पूरी हो जायँगी ।
ये हजार रुपये कैसे और कितने दिनों में एकट्ठे होंगे — रातदिन वह यही सोचता रहता था । आमदनी अधिक नहीं है इसलिए थोड़ा थोड़ा करके ही बहुत दिनोंतक संचय करना पड़ेगा । यदि कोई दूसरा आदमी होता तो इसे असम्भव कहके छोड़ देता - वह कहता कि कहीं बिन्दु बिन्दु जलसे समुद्र भर सकता है ? परन्तु कमलाप्रसाद धैर्य से इस असाध्यकी भी साधनाका प्रण करके बैठा था, इसके बिना उसका निस्तार न था ।
बहुत दिनों तक राह देखते देखते अंत में वही शुभ दिन आगया; इस मासका वेतन मिलते ही उसके हजार रुपये पूरे हो जायँगे । धीरे धीरे देखते देखते