________________
वीर-परीक्षा।
वाटिकामें आ पहुँचा । उसने देखा कि राजकुमारी उसीका नाम ले लेकर पुकार . रही है।
भावमुग्ध झल्लकण्ठने स्नेहपूर्ण कण्ठसे कहा-"प्यारी, मैं लौट आया ।। तेरे चरणोंपर प्रेमका अर्ध्य अर्पण करनेके लिए मैं प्रस्तुत हूँ । हृदयेश्वरी, उठ!"
झल्लकण्ठका वह आशांकुर जिसने हाल ही दर्शन दिया था अधिक समयतक न ठहरा । राजकन्या एकाएक चौंक उठी और बाघिनीके समान गर्ज कर बोली-“तुम यहां क्यों आये ? इसी समय चले जाओ। मेरा एक बार अपमान करके क्या तुम सन्तुष्ट नहीं हुए? और भी अत्याचार करना चाहते हो ? घावपर नमक छिड़कने आये हो ? जाओ, यहां तुम्हारा काम नहीं ! लोकाचारको समझने योग्य बुद्धि भी क्या तुममें नहीं है ?"
झल्लकण्ठ राजकुमारीकी वह क्रोधपूर्ण मुद्रा देखकर अवाक् और विस्मित हो रहा । वह यह सोचता हुआ कि-रमणीका हृदय कितना अगम्य और कल्प-. नातीत होता है-चुप चाप चल दिया। पुष्पिका यह सब लीला देखकर स्तब्ध हो रही। __ थोड़ी ही देर में भद्रसामा फिर विलाप करने लगी-आये ? किस लिए आये ? क्या रतिको जीतनेके लिए ? अच्छा तो फिर लौट क्यों गये? क्या रतिको जीत नहीं सके ? यदि समरभूमिमें बाहुबल दिखला सकते हो तो रतिभूमिमें तुम्हारा हृदय-बल क्यों लुप्त हो जाता है ? हे गौरवभूषित, आओ! वीरता दिखलाकर मेरे हृदय-दुर्गपर अधिकार कर लो। हाय ! मैंने तुम्हें पाकर खो दिया ! हे प्राणवल्लभ, मैं तुम्हारे लिए मरती हूँ, मुझे बचाओ !
(३) झल्लकण्ठने अपनी छावनीमें पहुँचकर राजकुमारीको एक पत्र लिखा-. “भद्रे, यदि मूर्खतावश मैंने तुम्हें कोई कष्ट पहुँचाया हो, तो उसके लिए मुझे क्षमा करो । मैं अपने अपराधका प्रायश्चित्त भोग रहा हूँ।
-त्वदर्पितप्राण झल्लकण्ठ ।" दूत पत्र देकर लौट आया । राजकुमारीने कुछ भी उत्तर न दिया।
राजकुमार भद्रमुखने अपनी बहनसे पूछा-“भद्रे, क्या तूने सचिवश्रेष्ठ झल्लकण्ठको निराश कर दिया ? प्यारी बहन, मेरी समझमें वे सब तरहसे तेरे योग्य हैं !"