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कञ्छुका।
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लूनीर नदीकी धारा बहती थी। बड़े प्रातःकाल कुमारी कञ्छुकाने नदीके शीतल जलमें स्नान करके देवमंदिरमें प्रवेश किया । इस समयके पाठकोंको कञ्छुका नाम अच्छा न लगेगा; परन्तु क्या किया जाय, कवित्वप्रिय पाठकोंके लिए ऐतिहासिक नामका परिवर्तन नहीं हो सकता । नाम कैसा ही हो, पर कुमारी कञ्छुका थी बहुत सुन्दरी । क्योंकि उसके देवमन्दिरमें प्रवेश करते ही, एक सौम्यमूर्ति संन्यासी युवक उसे देखकर देवपूजाका मंत्र भूलकर मन-ही-मन यह पाठ पढ़ने लगा था,
कनककमलकान्तैः सद्य एवाम्बुधौतैः श्रवणतटनिषक्तैः पाटलोपान्तनेत्रैः। उपसि वदनविम्बैरंससंसक्तकेशैः
श्रिय इव गृहमध्ये संस्थिता योषितोऽद्य ॥ इस समय अजमेरमें नये चौहान वंशका राज्य था । राजा गोवकके पुत्र चन्दन उस समय सिंहासनारूढ़ थे । कुमारी कच्छुका राजा चन्दनकी बहिन थी। __सुन्दरीने ईश्वरके चरणोंमें अंजली प्रदान करके संन्यासीके चरणोंपर अपना मस्तक नवाया । संन्यासी चकित हो उठकर कहने लगा- मैं आपका प्रणाम ग्रहण करनेके अयोग्य हूं, विशेषकरके इस देवमन्दिरमें ईश्वरके सिवा दूसरा कोई वंदनीय नहीं हो सकता।" कुमारीने मन्दहास्यसे कहा-"जब स्वयं चौहाननरेश आपके भक्त हैं, तब यदि उनकी छोटी बहिनने आपको प्रणाम किया तो इसमें हानि क्या हुई ? " संन्यासी यह 'परिचय पाकर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ। ___ राजकुमारी यद्यपि प्रगल्भा मालूम होती है; परन्तु उसके दोनों नेत्र मुग्धाके नेत्रोंके समान हैं । संन्यासीकी ओर देखकर बातचीत करनेके समय उसके दोनों पलक ज्यों ही कुछ ऊपर उठकर और सुकोमल दृष्टिको ढककर अवनत हुए, त्यों ही संन्यासीका मस्तक घूम गया । संन्यासीने देखा कि उसके प्राणोंने प्राचीन वक्षोगृह छोड़कर युवतीकी कुछ खुली हुई दृष्टिके मार्गसे सौन्दर्यके नवमन्दिर में प्रवेश किया है । वह चिन्ता करने लगा कि अब यदि यह मनोमोहिनी नेत्रोंके पलक खोल करके फिर देखे भी, तो भी, इसमें सन्देह ही है कि गये हुए प्राण फिर लौटेंगे या नहीं।