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________________ फूलोंका गुच्छा। निकट पहुंचकर दोनों हाथोंसे उस कटोरेको थाम लेता था; किन्तु अपने उस अपरिचित और अदार्शत प्रेमीके हाथोंसे कटोरा लेनेमें उसे बहुत समय लगता था ! वे हाथ वसन्तके जीवन-सर्वस्व थे। उन्हें वह अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओंका अवलम्बन समझता था और नेत्रभरकर उन्हें ही देखता था । उन हाथोंके विशेष आकारको, अंगुलियोंकी विशेष भंगीको, नखोंकी विशेष गठनको, हथेलियोंकी रेखाओंकी रचनाको और दाहिने हाथकी पहुंचीपरके एक छोटेसे काले तिलको निरन्तर देखते देखते वसन्त इस तरह परिचित हो गया था कि हजारोंमें भी वह उन हाथोंको ढूंढ़के निकाल सकता था । उन हाथोंकी अंगुलियोंके स्पर्शमात्रसे वसन्तके शरीरमें जो रस-रोमांचका ज्वार आ जाता था, वह स्पष्ट कह देता था कि जिसकी ये अंगुलियाँ हैं, वह तरुणी लज्जावती और दयावती है। वसन्त सोचता था कि ये हाथ जिस शरीरको अलंकृत करते हैं, यह मन जिस शरीरका संचालक है और यह दयाई कंठस्वर जिस शरीरका शृंगार है, वह शरीर न जाने कितना सुन्दर, कितना दिव्य और कितना प्रशंसनीय होगा। एक दिन वसन्तसे न रहा गया। उसने उक्त दोनों हाथोंको दबा कर कहा-देवी, मेरे ऊपर यह ऋणका बोझा 'किसकी ओरसे बढ़ाया जा रहा है ? तुम कौन हो, जो इस बँधुएको और भी गाढ़े वन्धनोंसे कस रही हो ? क्या मैं ऋणी ही होता जाऊंगा? यहां उसके चुकानेका तो कोई भी उपाय नहीं दिखलाई देता। __ युवतीने स्नेहपूर्ण स्वरसे कहा--मालाकार, तुम डरो मत । जो तुम्हारे बड़े भारी ऋणसे दब रही है, वही इस समय अपनी कृतज्ञताका एक. अंश मात्र प्रकाश करनेकी चेष्टा कर रही है। वसन्तने विस्मित होकर पूछा-मेरे ऋणसे दब रही हो? तुम कौन हो? तरुणीने कहा- मेरा नाम सुभद्रा है । वसन्त नम्र स्वरसे बोला---भद्रे, तुम कौन हो, यह तो मैं नहीं जानता; परन्तु तुम्हारी दयाको देखकर मुझे अब फिर नरलोकमें आनेकी इच्छा होती है।
SR No.010681
Book TitleFulo ka Guccha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1918
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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